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________________ तथेति प्रतिपद्याशु रेमे घुस निरंकुश । भाग्यवशतो मन्त्र निर्जितो समदराया ॥ २०॥ तदा तद्वितय नौस्वा सानन्दाभोशलोचना । दत्वा निपुणभस्याख्यधात्रोकरतले शनैः ॥ ११० ॥ अनवोदिति हे प्रात्रि! यादि शीघ विजगृहे । एतत्पत्स्य च दत्त्वैतद्भद्रमिनकरण्डक ॥ १११ ॥ यावयित्वा अबाइदि सागता प्रियभाषिणो। अभिज्ञानेन तत्रीत्वा रलसप्तकर डक ॥११२|| आगत्यैव ददौ राध्ये तदादा | नृपाय वा । सिंहसेनोऽपि तन्नीत्वा सभायामागतो ध्रुवं । ११३ ॥ किद्भिः स्वीथरत्नश्व मिश्रितानि विधाय सः । तानि माहेति हे येश्य ! गृहाणैतत्स्वकं धन ॥ ११४॥ भवमित्रः स्वरत्नानि अप्राह गणगौरतः । विहायान्यानि ग्लामि तदा राझ ति तति ॥ १५ ॥ KYPERATIVEYPREE ब्राह्मण सत्यघोषकी निर्मल भी बुद्धिपर उस समय वलवान मूढ़ताका आवरण पड़ा हुआ था। रानीP के कहे अनुसार उसने सब चीज देनी स्वीकार कर लीं। वह निरंकुश हो सानन्द जूना खेलने लगा। दुर्भाग्य वश उस मन्त्रोको अपनो चतुरतासे रानी रामदत्ताने जोत लिया । कमलनयनी रानी रामदत्ताने मुद्रिका और कटार दोनों चीजे लेकर धीरेसे निपुणमती नामकी धायके हाथमें दे दी और उससे यह कहा-- | तू शीघ्र हो ब्राह्मण सत्यघोषके घर जा । इसकी पत्नीसे सात रलोंवालो पिटारी मागला और 5/ मुझे जल्दी लाकर देदे। धात्रो निपुगमती बड़ी ही प्रियवादिनी थो वह शोघ्र ही मन्त्री सत्यघोष के घर चली गई । अपनी चतुरतासे उसने सात रत्नोंको पिटारी लेलो । लाकर रानी रामदत्ताको दे दी। गनीने राजाके हाथमें वह पिटोरी दे दी। राजा लेकर शीघ्र हो राज सभामें आ गया । वहां | आकर उसने कुछ अपने रत्नों के साथ मिलाकर वे सातो रत्ल रख दिये। वैश्यपुत्र कुमार भद्रमित्र को राज सभामें बुलाया और यह कहा। भाई ! तुम अपने रत्नोंको पहिचान कर लो ॥ १०७-११४ ॥ वैश्य पुत्र :भद्रमित्र एक ईमानदार व्यक्ति था । अनेक रत्नोंमेंसे उसने अपने सात रत्न चुनकर ले लिये एवं गुणशाली उस 略略略許院代院外特許伦称
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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