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________________ MOVESYAPRINTara अहो मयं महान् कोऽपि सत्यवाक शुरुतो नरः । निलोंमा स्वकुलाचार विदग्धो पञ्चितोऽमुना ।। ११६ ।। सत्यघोषो महापापी स्वधः। माचारपूरगः । असत्योतिः कृपाहोमो दण्डनीयो महाशयः ॥११७॥ पाहत्याकार्य भूमीशः स्वीय त्यान् प्रति कुधा । विधा दण्डो विधा ! तव्या वावस्यास्य दुर्मतेः ॥ १५८ ॥ सर्वस्वहरणं पूर्व विधेयं पूर्वरीतिभिः । चपेटा वज्रमुष्ट्याख्यमलस्य त्रिशर्जिताः ॥ ११ ॥ कांस्यपात्रत्रयापूर्ण नवगोमयमाण । कारितव्यमिति धा दण्डोदेयोऽधिलग्यतः ॥ १२० ॥ तथाकारि भृशं भृत्यं यमसन्निभषिप्रहैः । - कुमारने अन्य रन वहींपर छोड़ दिये। वैश्यपुत्र भद्रमित्रकी यह लोकोत्तर निर्लोभता देख राजा सिंहसेन बड़ा ही प्रसन्न हुआ और मन ही मन इसप्रकार विचार करने लगा यह भद्रमित्र कोई सामान्य पुरुष नहीं किन्तु महान् सत्यवक्ता पुण्यवान निर्लोभ और कुलाचारमें चतुर पुरुष रल है अवश्य इस पापी सत्यघोषने इस महापुरुषको ठगा है । यह सत्यघोष । महापापी धर्माचारणोंसे विमुख झठा निर्दयी और वज़ मूर्ख है इसे अवश्य दण्ड देना उचित है। | ॥ ११५–११७ ॥ राजा सिंहसेनने शीघ्र ही मन्त्री सत्यघोषको राजसभा बुलाया और क्रोधसे । आगबबूला हो इसप्रकार सेवकोंको आज्ञा दी-- यह ब्राह्मण बड़ा भारी दुष्ट है इसके लिये तीन दण्ड में निश्चित करता हूं। प्रथम दण्ड यह ], है कि प्राचीन प्रथाके अनुसार इसका सारा धन हरण कर लिया जाय १। दूसरा यह है कि वन | al मुष्टि नामक मल्लके तीस मुक्र इस पर पड़ें एवं तीसरा दण्ड यह है कि कांसके तीन बर्तन ताजे गोबरसे। है भराये जांय और वह समस्त गोबर इसे खवाया जाय । इन तीन बातोंका प्रवन्ध बहुत शोघ्र कर || | देना चाहिये और इसे बहुत जल्दी दण्ड देना चाहिये ॥ ११८-११६ ॥ राजाकी आज्ञा पाते ही। यमराजसरीखे करभृत्योंने शोध ही अपना कार्य पूरा कर दिया । ठीक ही है जो भृत्य अपने स्वामी || | की आज्ञा मानने वाले हैं बहुत शोघ्र वे अपने पर सोंपे हुये कार्यको कर डालते हैं ॥ १२० ॥अप
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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