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पंचनव शरीरं नैव लक्ष्यते ॥ १२० । धन्यास्ते स्त्रीकुटुंबादि त्यक्त्वा संगपराङ्मुखा: । रामद्वेष विनिःक्रांता बैराग्येण वनं गताः॥ १२१ ॥ दुस्तरं सुतपस्तप्त्वा शेषपुण्येन धौधनः 1 उच्चैगोत्रशुभायु:सोना सुन्मुमोच सः ॥ १२२ ॥ सहस्त्रारे शुभे स्वर्गे गतो भावव
शान्मुनिः । सहस्त्रारेंद्रनामा च बिभूवामर सेवितः॥ १२३ ।। अंतमुहर्तमात्रेण संपुटायशिलातलात् । उत्थितो यौवनाव्यः स रूपद्योति 4 तदिङ्मुखः ॥ १२४॥ उत्थितं तंसमालोक्य कलानिधिमुखं परं । रूपसीमानमित्याहु स्थूलस्तन सुरांगनाः ॥ १२५ ॥ अयि नाथत्वया ।
घोंसला बना लिया था एवं जटा उनकी कभी कभी ऐसी बढ़ जाती थी कि उनका सारा शरीर ढक
जाता थादीख नहीं पड़ता था ॥ १२० ॥ ग्रन्धकार विरक्त महात्माओंकी प्रशंसा करते हुए र कहते हैं कि वे महानुभाव संसारके अंदर धन्य और भाग्यशाली हैं जो कि स्त्री और कुटुम्बन
आदिसे मोह तोड़ कर परिग्रहसे विरक्त हो गये हैं। राग और द्वेष जिनके पास तक नहीं फटकने पाता एवं बैराग्य भावनाका सदा चितवन करते हुए जो सदा बनके अंदर निवास करने वाले हैं। ॥ १२१ ॥ दिव्यज्ञानी मुनिराज पद्मसेनने घोर तप तपा एवं पुण्यकी कृपासे उन्होंने उच्चगोत्र शुभ
आयु और साता वेदनीय कर्मके साथ साथ उन्होंने शरीरका परित्याग कर दिया ॥ १२२ ॥ वे * मुनिराज विशुद्ध भावोंकी कृपासे सहसार नामक बारहवे स्वर्गमें सहसारेंद्र हुए एवं अनेक देवगण
| उनकी सेवा करने लगे ॥ १२३ ॥ वह मुनिराज पद्मसेनका जीव सहसारेद्र अन्तर्मुहर्तमात्रमें ही से संपुट नामकी शिलासे उठकर पूर्ण युवा हो गया एवं अपने देदीप्यमान रूपसे समस्त दिशाओंको
जगमगाने लगा ॥ १२४ ॥ चंद्रमाके समान मनोहर मुखसे शोभायमान और अत्यंत रूपवान in सहसारेंद्र देव ज्यों ही संपुट शिलासे उठकर खड़ा हुआ कि पीन स्तनोंकी धारक देवांगना उनके पास आई और इसप्रकार विनयपूर्वक निवेदन करने लगीं
हे स्वामिन् । आपने ऐसा कौनसा बहुतसा दिव्य पुण्य उपार्जन किया जिससे आपका जन्म से यहां आकर हुआ क्योंकि यह नियम है कि सारी सिद्धियां पुण्यबलसे प्राप्त होती हैं विना पुण्यके |
एक भी विभूति प्राप्त नहीं हो सकती ॥ १२५ । १२६ ॥ क्या आपने पहिले श्रीमान जिनेंद्र भगवान |
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