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________________ ॥ ७३ ॥ अत: पुरयाः सुखं न स्यात् पुरो भावी न वा प्रम! भविश्यत्यय या पुरः सेवया जीवित वृथा ॥ ७४ ॥ मत्पुत्रौजाय राज्य | चद्ददासि त्वं यदा तदा । ददामि पुत्रिका तुभ्यं प्रतिपन्नं तथैव तत् ॥ १॥ उपयम्य सुतां तस्य यस्य सैन्यविराजितः । जंगम्यते स्म | राज्ये स्वे विवेश नगर निजं ॥७६॥ उलाकं पुरं कृत्वा तोरणास्ति । सर्वसामसमस्याद्या विदधुमंगलकियां ॥ ७ ॥ हावभाववि कर महाराज उपश्रेणिकका चित्त ठिकाने न रहा। वे हृदयसे मोहित हो गये एवं अपने मनोहर , दांतोंकी प्रभासे विशाल सभाको शोभायमान करनेवाले वे महाराज उपश्रयिक भिल्लराज यमईडसे कन्या तिलकवतीकी याचना कर बैठे ॥ ७२ ॥ राजा यमदंडने महाराज उपवेगिककी जिस समय यह याचना सुनी तो वह उनको प्रार्थना नामंजर तो न कर सका क्योंकि महाराज उपवे. |णिक नीतिपूर्वक प्रजाके पालन करनेवाले एक महान् राजा थे परंतु वह अपनी पुत्रीको कल्याणकी बच्छासे इसप्रकार कहने लगा2 कृपानाथ ! आप इसतमय एक प्रधान राजा माने जाते हैं और आपके रणवासमें अमित सुंदरियां मोज द हैं जो कि सुदरतामें एकसे एक बड़ी चढ़ी हैं, संभव है उनको मोजुदगीमें मेरी पुत्री तिलकवतीको सुख चैन न मिले । अथवा पुत्रकी उत्पत्तिसे स्त्रियां विशेष सुख अनुभव करती है संभव है इसके पुत्र न हो जिससे भी इसे कष्ट भोगना पड़े। अथवा शुभ भाग्यसे उसके पुत्र भी हो जाय परन्तु अन्य पुत्रोंके विद्यमान रहते वह राजा न बन सके उनका सेवक ही बना रहे ऐसो । दशामें भी मेरी पुत्रीको सुख मिलना कठिन है क्योंकि सेवासे जोवनका विताना निरर्थक समझा जाता है इसलिये पुत्रीके सुखको अभिलाषासे मेरी यह प्रार्थना है कि यदि आप यह बात स्वीकार करें कि इस पुत्रीसे जो पुत्र हो वही राज्यका अधिकारी समझा जाय उसके रहते अन्य कोई पुत्र राजा न बनाया जाय तो मुझे आपको पुत्री देने में कोई उजनहीं-मैं सहर्ष उसे आपको प्रदान कर सकता हूँ। महाराजा उपश्रेणिक तो उसप्तमय कामांध थे। योग्य अयोग्यका कुछ भी विचार । KARE
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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