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|४५| हें प्रिये चम्बकालीकटाक्षे मृगलोचने । कानि चत्वारि कृत्यानि कर्तव्यानि च धीमता ॥४६॥ पुनः प्रोद्द प्रियं धारं वीरवान्यामलो चना | अकालगमनं चैकं विषमां गोष्ठिकां ततः ॥४७ कृमित्रः सह सांगत्यं कामाभावात् युधाः । परस्त्रीभिः समं नैव कुर्व ति शर्म कक्षिणः ॥ ४८ ॥ अथाल विद्यते नाथ! प्रवृत्तिः कथ्यते मया । यूर्य ष्टणुत तो रायां श्रद्धान्वीतेन चेतसा ॥ ४६ ॥ महामोर्ट जन तेऽभूत् ष्ठां कौमारपालकः । शतपचारात्सु कोटोनां दीनाराणां प्रभुर्महान् ॥ ५० ॥ प्रियंगुसुन्दरी हस्य दायितःस्ति गरीयसी । तयोः स्यातां सुतौ धौ व रम्यौ क्तिविचित्रको ॥ ५१ ॥ चित्रोऽभूद्य तसंसको रायं नीत्वा गृहदिद । तद्भ्योऽनिशं पितृदुःखशेमfarer format oी वड़ी गम्भीर और बुद्धिमती थी अपने स्वामीको उसने इस प्रकार उत्तर दियाप्रथम वात तो यह है कि मनुष्यों को जहां कहीं भी जाना चाहिये समयमें नहीं जाना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जो गोष्ठी - संगति विषम हो उसमें सम्मिलित नहीं होना चाहिये सत्सङ्गति हीं करनी चाहिये। तीसरी बात यह है कि जो कुमित्र हैं उनके साथ किसी प्रकारका सहवास नही करना चाहिये और चौथी बात यह है कि जो मनुष्य अपने कल्याणके आकांची हैं उन्हें चाहिये कि वे परस्त्रियोंसे किसी प्रकारका अपना काम न सटता देख रंचमात्र भी उनसे कोध न करें ॥ ४६-४६ ॥ इसी सम्वन्धमें एक कथा प्रसिद्ध है । एकाग्र चित्त हो ध्यान देकर सुनो मैं क्रमसे कहती हूं -
इसी पृथ्वीके महाभोद देशमें एक कुमार पाल नामका सेठ निवास करता था जो कि छप्पन दोनारोंका स्वामी था । उसकी स्त्रीका नाम प्रियंगुसुन्दरी था और उससे चित्र विचित्र नाम के दो पुत्र उत्पन्न थे || ५० ५२॥ दोनों पुत्रोंमें चित्र नामका पुत्र बड़ा ही ज्वारी था। वह ज्वारियोंको प्रतिदिन घर से निकालकर धन दिया करता था । पिताको बड़ा कष्ट देता था और सदा पागलके
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