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________________ - मादितः ॥ १ ॥ अयं दोषोऽस्ति नास्माकं मुनां धर्मशालिना । प्रसारिता पय माधा विद्यद्रीण पापिना ॥ १२॥ पुरस्तात्तव को ल || येतो वयं क्षुदाः खचारिणः । गणशला यया मेटो: पतंगस्योदुखत्मभी! ३ ॥ देवधिण्य विशार्ष वा विकदल्यथ वाटिका । कदली होना न भास्येष न्यायहीना नरस्तथा ॥ १४॥ मतो देव विचार्याशु न्यायमार्गेण धर्मवित् । सदोषो हन्यतां हन्त न्यायवन्तो हि पण्डिताः । ___ कृपानाथ ! आप शांत हुजिये और भादि अन्त तक सारा यथार्थ वृत्तांत सुन लीजिये ॥८-12 ॥ ६१॥ हम लोग धर्म मार्गके अनुयायी और कोमल परिणामी हैं। यह जो बलवान अनर्थ वन 12 पड़ा है इसमें हमारा कोई अपराध नहीं है। हम लोगो से एक विद्युदंष्ट्र नामका महा पापी विद्याधर है उसीकी यह करतूत है--उसीके बचनों पर विश्वास कर हमसे यह निंदित कार्य वन गपा है। स्वामिन् ! जिस प्रकार विशाल मेरु पर्वतके सामने गण्डशैल-स्थूल पत्थरों के धारक पर्वत - कोई चीज नहीं। तथा सर्य और चन्द्रमाके सामने नक्षत्र कोई चीज नहीं उसी प्रकार हम तुद्र विद्याधर आपके सामने क्या चीज हैं ? प्रभो । जिस प्रकार शिखरके विना मन्दिर शोभा नहीं पाता कदली ( केला ) के वृक्षोंसे रहित बगीचा जिस प्रकार कदली वृक्षोंके बिना शाभा नहीं धारण * करता उसी प्रकार जो मनुष्य न्यायहीन है-न्याय दर्वक कार्य नहीं करता वह भी शोभित नहीं होता। ॥६२-६४ ॥ अतएव हे देव ! अप धर्म मार्गके अनुयायी हैं आपको चाहिये कि आप न्याय| पूर्वक विचार कर जो दोषी हो उसे ही मारें और दण्ड दें क्योंकि आप पूर्ण विज्ञ हैं और विज्ञ पुरुष जितना भी कार्य करते हैं न्याय पूर्वक कार्य ही करते हैं। जो मनुष्य मदोन्मत्त हो अपनी ! इच्छानुसार न्यायमार्गके प्रतिकूल कार्य करते हैं संसारमें उनके विशिष्ट वलकी प्रशंसा नहीं होती 15/ ठीक हो है कर्मों को निर्जरा जो भी होती है वह निरंकुश होती है अर्थात् उत्तम वल प्राप्त कर जो न्याय पूवक कार्य करते हैं उन्हींको वलवान माना जाता है किंतु वलवान होकर भी अन्याय पर्वक AMEkkrkchrrhitrketCKE sekchrhar kiskcks
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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