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________________ कपyaKYAद्धा तुरिवापरः ॥ १४० ॥ पुत्रोऽनुजस्ततो अर्श पूणचन्दो विशालढक । सिंहसेनस्य भूपस्य सल्लभी तो वषतुः ॥ १४१ ॥ रामापुत्राधिपत्योत्थ मुखं राजा भोज सः । लोकोत्तर सुख प्राप्य के न स्युभदमथराः॥ १४२ ॥ भाण्डागाराषलोका मेकदा काश्यपीपतिः । गतो रत्नादिसवस्तु दृष्ट्या निर्यात्यसौ यदा ॥ १४३ ॥ दर्शातस्म तदा क्रोधाचक्षुः श्रुतिरगंधनः । धराधीशं महावैरादुत्कणोऽ रुणलोचनः ॥ १४४॥ पपात धरिणोनाथो भूतले पविताधितः । रानी रामदत्ताके गर्भ में आकर अवतीर्ण हो गया। उत्पन्न होनेपर सिंहचन्द्र उसका नाम रक्खा गया जो कि एक उत्तम बुद्धिका धारक था। कुमार सिंह चन्द्रका छोटाभाई एक दूसरा कुमार था जिसका कि नाम पूर्णचन्द्र था एवं वह अपने विशाल नेत्रोंसे अत्यन्त शोभायमान था। सिंहचन्द्र और पूर्ण चन्द्र दोनों ही कुमार राजा सिंहसेनको बड़े ही प्यारे थे ॥ १३६–१४०॥ इस प्रकार आज्ञाकारी स्त्री और दोनों पुत्रोंको पाकर राजा सिंहसेन लोकोत्तर संसारीक सुखका अनुभव करते थे। ठीक ही है लोकमें अद्वितीय मुख पाकर सभी आनन्दमें मग्न हो जाते हैं ॥ १४१ ॥ एक दिन राजा सिंहसेन अपने भण्डारके देखनेके लिये गये। उसमें रहनेवाली रत्न आदि वस्तु देखकर वे लोटते ही थे कि मन्त्री सत्यघोषके पूर्व भवके जीव अगन्धन सर्पकी दृष्टि उनपर पड़ गई। पूर्व 22 वैरके सम्बन्धसे वह दुष्ट क्रोधसे आग बबूला हो गया। फणां उचेको कर लिया। क्रोधसे दोनों नेत्र लाल कर लिये और सिंहसेनको डस लिया ॥१४२--१४३॥ वह सर्प एक अत्यन्त विषमय सर्प था इसलिये जिस प्रकार वजूसे पर्वत नीचे गिर जाता है। पवनके तीव्र आघातसे वृक्ष उखड़ कर जमीन पर गिर पड़ता है उसी प्रकार राजा सिंहसेन भी सपके डसते ही नीचे जमीन पर गिर गये। महा राजकी यह दशा देखकर उसी समय अनेक वैद्य बुलाये गये और उनसे विषके नाश करनेके लिये कहा गया परन्तु उनमेंसे एक भी विषके नाश करनेके लिये समर्थ न होसका । अन्तमें गारुड़ YYYAAYAYAYAYANAYAYANAYANA
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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