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kel उर्योधरोऽथ या वृक्षो वायुवेगाकुलोकतः ॥ १४ ॥ नानायेमाः समाहूसा विषनाशार्थ मजसा । ते सर्वे तविष हर्तुं शकुतिस्म नोल
यदा ॥ १४६ ॥ तदा गारुढ़दण्डासयो विषधोऽहिमर्दकः । आईतो मन्त्रविमाशः पन्नाकर्षणोत्कटः ॥१४७॥ मन्त्र स्मृत्वा तदा तेन समाताश्च पन्नगाः। दिग्धिदिवसस्थिताः सर्वे समायाता भवार्दिताः॥१४८ ॥ उवाच विपवैद्यस्तान् दन्दशुकानिति स्फुटं । अग्नि कुडं प्रविश्याशु निदो पा यांतु शुद्धितां ॥ १४ ॥ अन्यथा निगृनाध्यामि तेनेत्युक्तास्तु पन्नगाः। जलाश्रवादिवाफ्लेशान्निर्या तिस्म | दंड नामके विष वैद्यको बुलाया गया जो कि सर्पोकेमानको मर्दन करने वाला था मंत्रोंका जानकर विद्वान और सोको अपने पास खींचलानेमें बड़ा चतुर था ॥१४४-१४६॥ वस वहां आकर उसने
अपने मंत्रका स्मरण किया। जिससे भयसे व्याकुल हो दिशा बिदिशाओंमें रहनेवाले समस्त सर्प - उसने अपने पास बुला लिये और वे सबके सब आगये ॥ १४७॥ जिस समय वे समस्त सर्प आS C पहुंचे गारुड्दण्डने उनसे कहाम तुम लोग इस अग्निकुण्डमें प्रवेशकर शुद्ध हो और निर्दोष होकर अपने अपने स्थानोंपर ।
चले जाओ। यदि तुम लोग यह कार्य न करोगे तो याद रक्खो मैं तुम्हें कठोर दण्ड दूंगा। बस ना उस विषवैद्यके कहते हो चट पट समस्त सर्प अग्निकुण्डमें गिर गये एवं जिस प्रकार जलसे निकलकर बाहिर आजाते हैं और किसी प्रकारका कष्ट नहीं होता उसी प्रकार के समस्त सर्प अग्निसे निकल आये उन्हें किसी प्रकारका कष्ट नहीं हुआ! अगंधन नामका सर्प जो कि बिजलीके समान चंचल जीभका धारक था एवं क्रोधसे उसके दोनों नेत्र जाज्वल्यमान थे। ज्योका त्यों खड़ा रहा। उसने विषवैद्यकी कुछ भी नहीं सुनी। विधवैद्यको मालूम पड़ गया। कि यही अपराधी हैं इसलिये उसने इस प्रकार कदककर कहा
या तो तू इस राजाका विष पीकर इसे उज्जोक्ति करदे यदि तुझे यह बात मंजूर न हो
YAAAAAAAAYA
AAYAT
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