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सकत
हुताशनात् ॥ १५० ॥ अगंचन: स्थितस्तत्र विद्युजिहो: ग्निकुकुधा । तहां प्राहेति तं देयो सुचैनं बानलं विश ॥ १५१ ॥ महावैरोत्थ क्रोधेन स्मितोग्नावगंधनः । कोलकार बने जहं सलोमश्वमरोमृगः ।। १५२ ।। सिंहसेनो नरो मृत्वा कालेन सल्फोवने । स.मजोऽभून्महोम्मनोऽशनिघोषाभिचः परः ॥ १५३ ॥ तच्छोचनादिसंप्लुष्टवपुर्यष्टिर्विचक्षणा । रामचा महामोहाद्विललाप कृपारवैः ॥ १५४ ॥ कराघातश्च सा वक्षस्ताडयन्ती पुनः पुनः । पतंती भूतले भूषां विशेपाम्लानलोचना ।। १५५ ॥ हा नाथ ! मदनावास ! मम प्राणाधिकप्रिय ! शत्रुपूराग्निजोभूत! पूर्ण णांकस्य दीर्घद्वक् ॥ १५६ ॥ विलासिनोमुखाम्नाजपुष्प प्रिय ! रतिप्रिय ! | मुक्त्वकां मां महारा
इस अग्निकुण्डमें प्रवेशकर । दोनों मार्गों में से एक मार्गका तुझे अनुसरण करना होगा । सर्व अiधनकी आत्मा पूर्वभव के महाबैरसे पजली हुई थी उसने राजा का विष पीना स्वीकार नहीं किया । वह अग्निकुण्डमें प्रवेश कर खाख होगया एवं वह लोभी मरकर कीलक वन में चमर नामका मृग हो गया । १४८ – १५१ । राजा सिंहसेन भी मरकर सल्लकीवनमें अशनिघोष नामका मदोमत हाथी हो गया ॥ १५२ ॥ राजा सिंहसेन के मरजाने से रानी रामदत्ताका शरीर शोकाग्निसे दग्ध होगया | वह करुणा जनक रोना रोने लगी । मारे शोकसे वह हाथोंसे वक्षःस्थल कूटने लगी । जमीनपर पड़ गई । समस्त भूषण बसन उतारकर उसने फेंक दिये । एवं रोते रोते उसके नेत्र फीके पड़ 'गये । वह इस प्रकार चिल्लाकर रोने लगीं
कृपानाथ ? तुम कामदेव के समान सुन्दर थे । प्राणोंसे भी अधिक प्यारे थे। शत्रुरूपी अग्निके लिये मेघ थे । पूर्णमासोके चन्द्रमा के समान विशाल नेत्रोंके धारक थे। स्त्रियों के मुख रूपी कमलोके भ्रमर थे और रतिकला में प्रेम करने वाले थे। प्राण प्यारे । अभागिनी मुझ अकेलीको छोड़ कर आप कहां चले गये । १५३ – १५६ । मैं क्या करू कहां रहूं और तुम्हारे बिना प्राणोंको कैसे राखूं । नाथ | तुम्हारे बिना यह समस्त राज्य मुझे विषको ज्वालाके समान भयंकर, जान पड़ रहा
KUKKA
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