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जयरवाकुलाः । आजग्मुः संघद्वास्तत्र जिनमक्किप्रणोदिताः ॥ ६६ ॥ शको बाहुसहस्त्रक चकार गुणगौरवः । धृत्वा कुमान् विभु शकः स्नपयामाससादरं ।। ६७ || अभितो मेहशैलेशं जलकल्लोलराजयः । अवातरश्च देवानां सरितः कोटिया किमु ॥ ३८ ॥ पंचव पर्यस्तत्र द्वश्यते मेरुत्त । कुत्रचित्त्रुटिता धारा लक्ष्यते रत्नदीतिभिः ॥ ६६॥ मयूरा युगपत्नत्र ( चु) कृजुर्घनसमागमं । जलराचमिति ज्ञात्वा ससारसमिश्रिताः ॥ १०० ॥ इतरेऽष्घः कृत्वा भावयतिस्म भावनां । ततः शकरिया चके प्रसाधनविधिं मुद्दा ।। ६०१ ॥ श्रवणो यस्य स्यातां वज्रशरीरतः । कर्णवेधोपचार वेश कारेंद्रस्यापि च ॥ १०२ ॥ किरोट कुण्डलैम्यैमेखला कटांगदैः करता था एवं कहीं कहीं पर रत्नोंकी कांतिस उसकी धारायें टूटी हुई नजर पड़ती थीं ॥ ६७ ॥ भगवान जिनेंद्रके मस्तक पर कुम्भ दारते समय जो जलका धधकार शब्द होता था उसे मौर हंस और स्याल नामके पक्षी मेघका शब्द मानकर एवं उस समयको वर्षा ऋतु समझकर अपने अपने मनोहर शब्दोंसे आकाशको व्याप्त करते थे ॥ ६८ ॥ एक हजार आठ कलसोमें से हजार कलसोंसे तो स्वयं इंद्र भगवान जिनेंद्रका अभिषेक करता था तथा शेष देवगण बाकी बचे आठ घड़ोंसे उस अभिषेक को करते और मनमें उनकी भावना भाते थे। जिस समय भगवान जिनन्द्रका अभिषेक समाप्त हो गया सौधर्म इद्रको इद्राणीने उबटन आदि कर भगवान जितेंद्र को जाना प्रारम्भ कर दिया ॥ ६६ ॥ भगवान के वज्रमयी शरीरमें पहिलेसे ही दोनों कान छिदे थे तथापि अन्य बालकों का कर्ण वेध [कानोंका छिदना ] संस्कार होता है इस लिये इंद्रने उपचार से | भगवान जिनेंद्र का बड़े ठाट वाटसे कर्णवेध उत्सव मनाया ॥ १०० ॥ महा मनोहर मुकूट ] कुण्डल करधनी कड़े और बाजूबंध भगवानको पहिनाये एवं स्वर्गीय होनेवाले नाना प्रकारके मनोज्ञ वस्त्र पहिनाकर भगवान जिनेन्द्रको शोभायमान कर दिया ॥ १०१ ॥ इन्द्रने भगवान जिनेन्द्र का मिलवाहन नाम रक्खा एवं उष्ट्रासन (ऊट जिस प्रकार बैठता है उस आसन से बैठकर ) | भक्तिसे गद्गद हो भगवान जिनेन्द्रकी इस प्रकार स्तुति करने लगा
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