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नानास्वर्गसमुद्भूतः पट्टकू लैरभूषयत् ॥१.३॥ नाम्ना वजी चकारने जिन धिमलयाइन । उष्ट्रासन समासीनः स्तुति कर्तुं समुत्सुकः ॥१०॥ त्वं देव जगतां माथ स्त्वं ज्ञानी गुणसागरः । धर्ममूर्तिर्जितारिस्त्वं स्वं दाता शिवशर्मपाः ॥१०५॥ ज्योतीरूपः सदानंदी सना। तन महानिधिः । अज्ञानध्वांतमित्राभो मुक्तिश्रीवल्लभस्त्वकं ॥१०६ ॥ योगिनामप्यचिंत्यस्त्व मव्ययो भय बर्जिनः । एकानेकत्वमापन: स्याद्वादी सर्ववंदितः ॥ १०७ : त्रिभानी गर्भमास्धः सुरासुर नमस्कृतः । भन्यौषधिकलापस्त्वं ध्यानी दानी दयामयः ॥ १०८ ॥ क्रियते
भगवन् ! आप तीनों लोकके स्वामी है। निर्मल ज्ञानके धारक हैं । उत्तमोत्तम गुणोंके समुद्र | हैं। धर्मकी साक्षात् मूर्ति हैं। राग द्वेष मादि समस्त वैरियोंके जीतने वाले हैं मोन रूपी सर्वोच्च
कल्याणके दाता हैं परम कांतिके धारक हैं। सदाकाल आनन्दित रहने वाले हैं। सर्वदा रहनेवाली - ज्ञान आदि महानिधिक स्वामी हैं । अज्ञान रूपी अंधकारके नाश करनेके लिये सूर्यके समान हैं।
मोक्ष रूपी लोकोलर सुन्दरी ग्यारे हैं। १९६॥ प्रभो ! आप इतने इतने अपरिमित और अगम्य गुणों के भण्डार हैं कि निरन्तर आत्माके स्वरूपके चितवन करने वाले योगी भी आप स्वरूपका विचार नहीं कर सकते। आप विनाश रहित अविनाशी हैं। किसीका भी आपको भार नहीं इसलिये आप भय रहित हैं । आप एक स्वरूप भी हैं और अनेक स्वरूप भी हैं। अर्थात् आत्म स्वरूपकी अपेक्षा एक रहने पर भी अनेक गुणोंकी अपेक्षा आप अनेक स्वरूप है। स्याहाद विद्या (अनेकांतवाद) के आप पारगामी हैं। समस्त जगत आपको पूजता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तोनों ज्ञानोंके धारक है । जिस समय आप गर्भक अन्दर विराजते थे उस समय भी सुर असुर आपको नमस्कार करते थे । भव्योंके लिये आप संसाररूपी रोगके नाश करनेके लिये पवित्र औषध स्वरूप हैं । ध्यानी हैं । दानी हैं और दया स्वरूप हैं। प्रभो ! समस्त आकाश तो कागज बनाया जाय। जलसे व्याप्त जितने भर समुद्र हैं उन सबके जलको स्याही बनाया जाय । मेरु पर्वतको कलम बनाया जाय और उच्च विद्याके विधान देवोंके इंद्र
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