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कारसहस्रक ।। ४७८ ॥ एवं श्रुत्वा मुनिः प्राहोष्ठिन भ्रमिताशयं । विश्वासहेतवे नने श्रीतल्या फधिका त्वया ॥ ४७ ॥ हास्तिनागपुरे राजा विश्वसेनोऽस्य भामिनी | वसुकांता तयोः पुत्रो वसुदत्तो गुणप्रियः ॥8॥ एकदा फेन चिद्रा सार्थवाहेन प्राभृतं । रसालफलमाचके पृष्ट गाहा जति किं ॥५४॥ तदोवाच महीशं स आमप्रभृतिरोगहत् । सुधासमंफलं चैतत् नीत्वा राजा खिये ददौ ॥ ४८२ ॥ सा पुत्राय ददौ मोहात् पुरा ददौ नपः। बल्लभत्वात्फलं भेध मालिने अपने दो ॥ ४० ॥ उप्त' च मालिना बीजं
तदा तरजायत । किद्विसरैः श्रेष्ठिन् ! प्रादुर्भूतफलं फ्रमात् ॥ ४८४ ॥ विचन इति पाठः लाख गृध्र सपमास्य व गृहीत्वा सति गच्छति । फलस्योपरि सद्विन्दु विषस्य पतितं तदा ॥४८५ ।। ( इति पाठः) विषौप्यपकलं जातं 172
सेट जिनदत्तकी यह बात सुनकर और उसे अपने भांत समझ कर विश्वास उपजानेके लिये मैंने कहा-मैं भी एक कथा कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो
हस्तिनागपुरमें एक राजा विश्वसेन था। उसकी स्त्रीका नाम भामिनी था और उससे वसुदत्त | नामका पुत्र उत्पन्न था जो कि गुणोंमें प्रेम करने वाला था ॥४७८-४८० ॥ एकदिन किसी यात्रीने आकर राजाको भैंटमें आमका फल दिया । नवीन किंतु सुन्दर चीज जानकर राजाने |* यूछा-भाई यह क्या है ? उत्तरमें व्यपारीने कहा-राजन् ! यह आम आदि रोंगोंका हरने वाला अमृतके समान आमका फल है । राजाने उसे ग्रहण कर लिया और अपनी प्यारी स्त्रीको दे दिया ॥ ४८१-४८२ ॥ माताका पुत्रपर विशेष स्नेह होता है इसलिये राजरानीने वह अपने पुत्रको दे | दिया। पुत्र पिताको बहुत मानता था इसलिये उसने उठाकर राजाको दे दिया राजाने उसफल को चाकूसे बनाया खाया एवं उसे अत्यंत मनोज्ञ जान मालोको बुलाकर उसे बोनेके लिये
दे दिया। मालीने वीज लेकर बगीचे में उसे बोदिया। कुछ दिन बाद वह वृत्त होगया और फल सभी लग आये। एक गीध पक्षी मुखमें सर्प लेकर आकाशमें जा रहा था देवयोगसे एक फलपर
विषकी वूद पड़ गई। विषकी गरमीले फल पक गया। मालीने उसे पका जान राजाको आकर भेंट किया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसे धन देकर राजी कर दिया। पुत्रपर अत्यंत स्नेह न
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