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TYPERTRIKAR
गर्दमाः शुनाः ।। २२८ ॥ (क) गुरुनिया वृषा धर्म नंदकाः सर्वनिन्दकाः। देवद्रव्योपजीचा थे. ध्यांक्षनीचा भवति ते ॥२२८ ॥ (ख) स्वजातिगुणगत्व दधाति या धान्वितः। विभेति मृत्युतो लज्जाधर्मकारी स्वशासकः।। २२६ ।। वात्रमिष्टोऽत्तरे दुष्टः करतो म्रियते नरः । अन्यथा मध्यभाया ये सुखतस्त्वरया नराः ।। २२० ।। ये तु दुष्टकुले जाना मृदयः सद्धियो नराः । प-- हास्ते भयंत्यत्र भव्याः कुटिलतातिगाः ।। ५३१ ! मरा ये चुकुलोत्पन्नाः कुटिला भ्रांतिपूरिताः । सूबकास्ते भवत्यत्रामव्या वृक्षविपर्यया ।। २३२ ॥ स्मृतिध्यानात्समुत्याय दूष्ट ये यात कौतुर्क। से वृद्धत्वे भवत्यंधा विपुत्रा विनियो नराः ॥ २३३ ।। कलौ ये'लापमा भ्रांतिधर्मदानकरा नराः । कुलाचारद्विषो लोल्यान्मुद्गलास्ते भवत्यहो ॥ २३४ ॥ इत्यादिवश्नसमाला सात्तरा साँवभाय स: । मर कर महा नीच काक होते हैं ॥ २२८ ।। जो मूढ पुरुष अपनी जाति और अपने गुणका सदा
घमण्ड करता है। सदा क्रोधसे जलता रहता है। मृत्युसे भयभीत रहता है जो कार्य लज्जाजनक व है उन्हें करता है। अपनी प्रशंसा करता रहता है । मीठे वचन बोलनेवाला होकर भी अन्तरङ्गमें
दुष्ट रहता है वह मनुष्य बहुत दिनों में अनेक प्रकार के रोगोंके दुःख भोगकर मरता है किन्तु जो मनुष्य मध्यम भाव रखते हैं उपर्युक्त कोई भी दुर्गण जिनमें नहीं रहता उनकी मृत्यु बड़े सुखस बहुत जल्दी हो जाती ॥२२६-२३० ॥ जो मनुष्य दुष्ट कुलमें तो उत्पन्न हुए हैं परन्तु कोमल || परिणामोंके धारक हैं। उत्तम बुद्धिके स्थान हैं और धर्मके- उत्तम धर्मके जानकार हैं वे भव्य मनुष्य कुटिलतासे रहित सीधे साधे होते है ॥ २३१॥ जो मनुष्य उत्तम कुलमें तो उत्पन्न हुए हैं। दरन्तु परिणामोंमें किसी प्रकारकी सरलता न कर कुटिलता रखनेवाले हैं भ्रांतिसे परिपूरित हैंजिनेन्द्र भगवानके बचनोंके अन्दर सदा भ्रम करनेवाले हैं और चुगुल खोर हैं वे धर्मसे विपरीत
श्रद्धान करनेवाले अभव्य होते हैं ॥२३२॥ इस कलिकालमें तपस्वी बन जो मनुष्य धर्म और दान5 को विपरीत रूपसे करनेवाले हैं और कुलाचारके विरोधी हैं वे मनुष्य मरकर चुगुल होते हैं (१२३३। न
धर्म नामके बलभद्र द्वारा जितने भी प्रश्न किये थे उनका इस प्रकार उत्तर देकर भव्यरूपी कमलों