SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | २२४ ॥ दर्शनशान वारिवमृतस्ते शिवमाजिनः । भवति भावनात्रोता: शुक्लध्यानपरायगाः ॥ २२५ ॥ लजि काकर्मका ग्यश्चैत्य D निदकरा ध्रुवं । परेषां गुणलोपिन्य उपवादेषु तत्पराः ॥ २२६ ॥ भुजतं दृष्टिदायिन्यो मार्जायों वपत्रविष्टिकाः । शाकिन्यः IM स्युध्रुब रामा मध्यभावो हि सौख्यदः ॥ २२७ ॥ अन्तःकापट्यसंपन्ना दट वान्येषां शुभ धनं। क्रुध्यन्ति दण्डयेति या तेलुक दीनोंमें उन्हें मोक्ष सुखकी प्राप्ति हो जाती है किन्तु जो इन क्रियायोंसे रहित हैं अर्थात् न तो धर्म S के भक्त हैं। न उत्तम आचरणोंके आचरने वाले हैं और न गुलमोंमें निनग्रही रखते हैं वे दीर्घ २ संसारी होते हैं बहुत काल तक उन्हें संसारमें रुलना पड़ता है ॥ २२ ॥ जो महानुभाव सम्यग्द-15 शर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रके धारण करनेवाले हैं । निरन्तर अनित्य आदि भावनाओंको भाते हैं। और शुक्ल ध्यानमें तत्पर होते हैं वे महानुभाव अनुपम सुख मोन सुखके भागी होते हैं 12 ॥२२॥ जो स्त्रियां लज्जाके कारण निन्दित कार्य करनेवाली हैं। भगवान जिनेन्द्रकी प्रतिमाओंकी | निन्दा करनेवाली हैं। दूसरोंके गुणोंका लोप करनेवाली हैं। रात दिन उत्पात लड़ना झगड़ना ही जिनका काम है तथा जो मनुष्य भोजन कर रहा हो उसकी ओर विल्लीके समान टकटकी लगाकर ब/ देखनेवाली हैं एवं जिनकी दृष्टि वक्त्र है वे स्त्रिये मर कर नियमसे शाकिनी भ तिनी होती है किंत ! जिनका मध्यम भाव रहता है,लज्जाके कारण निंद्य कार्य आदि नहीं करतीं उन्हें कोई दुःख नहीं | उठाना पड़ता क्योंकि मध्यम भाव सदासुख देनेवाला होता है ॥२२६–२२७॥ जिन मब्रुष्योंके हृदयों - 15 में छल छिद्र कपट भरा रहता है। दूसरोंका धन देख कर जो रोष करते है और अपनेको दुःखित सवनाते हैं वे पुरुष मर कर उल्लू गधा और कुत्तेका जन्म धारण करते हैं। जो दुष्ट पुरुष गुरुओंकी 18 निन्दा करनेवाले हैं। व्यर्थ हो धर्मकी निन्दा करते हैं । हरएक को निन्दा करना ही जिनका मुख्य व कर्तव्य रहता है और जो देव द्रव्यसे जीनेवाले हैं अर्थात् निर्मल धन हजम कर लेते है वे पुरुष parsankrKYTETTER Palgharपापपरालक
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy