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जिद्रः संस्थितो भव्यपंकजालिक्विाकरः ॥ २३५ ॥ भव्याः श्रत्वा जिनेंद्रोक्त केचित्सम्यवत्वधारिणः । केचित्संसार निर्वेदाप्रतिको जशिरे मराः १.२३६ ॥ भ्रातरौ तौ जिनं नत्वः जग्मतुर्भिजपसनं । भोजयामासतुः सौम्यं विद्यावामगोचर ॥ २३० ॥ अथासौ श्रीणिको धीमानन्धयुक्त गणाधिपं । वकावं केशवत्वं च ताभ्यां प्राप्त कुतो यतः॥ १३८, सन्मतिः प्राह मो भूप! भव्यं पृष्टं त्वया धुना ! तीर्थ शकरामादिकथा पुण्यप्रदा भवेत् ।। २३६ ॥ अत्र जंवमति द्वीपे बिहे पश्चिमे पुरं | नाम्बा गंधसमृद्धाय समस्ति संपदा भृतं ॥ २४० ।। तने वाभूमहाराजो मित्रनंदोति मिनमः । प्रतापानांतद्विपुगः सर्वसामंतसेवित: ॥ २३१ ।। कृतकांक्षा द्विषो को सूर्य के समान वे भगवान जिनेन्द्र शांत हो गये ॥ २३४ ॥ धर्म और स्वयंभू दोनों भाइयोंने
भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्रको नमस्कार किया। अपनी राजधानी लोट गये और कवि भी जिस - सखका अपनी वाणीसे वर्णन नहीं कर सकते ऐसा अनुपम सुख भोगने लगे । २३४-२३७।।
राजा श्रेणिकने भगवान गौतम गणधरसे प्रश्न किया कि भगवन् ! धर्म और स्वयंभू ने जो नारायण पदको प्राप्त किया वह किस कर्मके उदयसे कृपया कहिये ? उत्तरमें गणधर गौतमने haraj कहा कि राजन् ! इससमय तुमने बहुत ही उचित प्रश्न किया है क्योंकि तीर्थ कर चक्रवर्ती बलभद्र आदिकी कथायें पुण्य प्रदान करनेवाली हैं मैं संक्षेपमें कहता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो
इसी जम्बूद्वीपके पश्चिम विदेहन में एक गन्धसमृद्ध नामका नगर है जो कि संपदासे परिपूर्ण: न ॥२३८–२४०॥ उसका पालन करने वाला एक मित्रनंदी नामका राजा था जो कि सूर्यके समान
देदीप्यमान था । अपने प्रतापसे समस्त शत्रुओंका वश करनेवाला था। समस्त सामंतोंसे सेवित था। तथा वह राजा दुरक्षरसदादस्य दुरन-अतींद्रिय सिद्धोंके रस में मग्न जो कोई भी भव्यजीव थे उनका ग्रहण करनेवाला था अर्थात् जो भव्य जीव मोक्षमार्गपर स्थित थे वह राजा मित्रनंदो उनका पूर्ण आदर करनेवाला था। सदादस्य–समीचीन मार्गका ग्रहण करने वाला था और दुरक्षर-दुष्ट लोग र'चमात्र भी उसका विगाड़ नहीं कर सकते थे इसलिये "कृतकांक्षाः तीक्षण शस्त्रोंके धारक
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