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राप्रपा मत्रः । सतिनादिसंमिश्र बहुल भूरिचय ॥ १०२ ॥ तदा दृष्ट्वाध्यनिनान् प्राति तिः । स्वयंभूर्भूरिभो पानी कस्येदं घद्रत त्वरा ॥ ३०३ ॥ द्र बहु ॥ ३०४ ॥ महानद्रस्य शत्रु राजित्रिरिणः । अस्माभिनायते प्राज्यं द्रव्य तं मोधः पूर्ववैरानुबंधनः । तद्धनं हर्तुमाशको वभूवाभिः ॥ ३०६ ॥ क्रुधा स्वयंभू वा मुतो
भणुः श्रूय परमादरात् । देवसेन नृपेणेव प्रान मधुभूपतिं ॥ ३०५ ॥ श्रुत्वा नाम गतप तु सायकः । महामृगं विश सततालानीभित् ॥ ३०७ ॥ इससाय को तरचेण शविता जनाः । कोलाहलो महान् अक्षं प्रलयाविस्विागतः ॥ ३०८ ॥
कहो भाई ! तुम जो भैंट लेजा रहे हो वह किसकी है । एवं किसके लिये और कहां लेजा रहे हो ? उत्तर में उन में टकी रक्षा करनेवालोंने कहा
कृपा नाथ ! सुनिये हम बतलाते हैं। हमारे स्वामी राजा देवसेन हैं। शत्रुओंको विदारण करनेवाले महाराजा मधुके वे सेवक हैं उन्होंने राजा मधुके लिये यह उत्तम भेंट भेजी है। इसे इन राजा मधुकी सेवामें ले जा रहे हैं। वस, राजा मधुका नाम सुनते ही पूर्व वैर के संबन्ध से राजा
भूकमा कोसे व्याकुल हो गई । वैरियों के मानको मर्दन करनेवाले नारायण स्वयं भूउस धनके हरण करने के लिये पक्का विचार कर लिया । शीघ्र ही उसने वारण तूणीरले बाहिर निकाल लिया और इस रूपसे चलाया कि हाथीको वेदकर सात ताल उसने भेद डाले । जिस धनुष बाण जुटा हुआ था उस समय उसका इतना घोर शब्द हुआ था कि समस्त लोग कंपित हो गये थे एवं ऐसा भयंकर कोलाहल हुआ था कि मनुष्यों को यह जान पड़ने लगा था वि प्रलय कालका समुद्र आकर प्राप्त हो गया है उसीका यह कोलाहन है ।। ३०२ -- ३०८ ॥ नाराय स्वयं की यह क्रोध परिपूर्ण चेष्टा देख यद्यपि वलभद्र धर्मने वैसा न करने के लिये बहुत प्रकार से रोका था परंतु जिस प्रकार सर्पको छ इनेसे वह और भी भयंकर हो जाता है उसी प्रकार महा
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