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मोजमापासतराय लीलालहतविग्रहो । साचंद्रमसौ तौ वा सभ्यताराबिगावतो ॥२६८सुतुजातो घृतेन मिलिलिमा हठात् । स्वीकृत पेन तमाश्य सोऽभवानपुरे मधुः || २६ ॥ण्यसनां माय पान | मेजा मिश्चको प्रतिशत समन्यितः ।। ३०७ ॥ हेलया संदरनाथ,न् विद्विषो रणपर्वतान् । स्फोटको विश्वभूतानां हृदयेऽग्निरियोत्थितः ॥ ३०१ ॥ ( युग्म ) दोनों ही आपसमें अत्यन्त प्रेम रखनेवाले थे इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानों विधाताने इनकी रचना प्रेम स्वरूप हो की है ॥ २६७ ॥ अनेक प्रकारको लीलाओंसे शोभायमान शरीरोंके धारक
व वलभद्र और नारायण सानंद राज्यका भोग भोगने लगे। वे अनेक सभ्य पुरुषोंसे सदा वेष्टित I रहते थे इसलिये ऐसे जान पड़ते थे मानों अनेक ताराओंसे व्याप्त ये साक्षात् सूर्य और चन्द्र यही हैं ॥ २६८ ॥ सुकेतुकी पर्यायमें जिस बली शत्रु राजाने ज्या में राजा सुवेतुका जबरन राज्य | नवीन लिया था वह रत्नपुरमें मधु नामका राजा हुआ था ॥२६६॥ वह राजा मधु प्रतिनारायण था |
इसलिये तीन खण्डको संपदा पाकर वह सुख पूर्वक रहता था और शत्रु ओंका अगम्य था कोई भी शत्रु उसे जीत नहीं सकता था। वह राजा मधु रणमें पर्वत सरीखे उन्नत शत्र राजाओंको लीलामात्रमें नष्ट भ्रष्ट करनेवाला था एवं अग्नि जिस प्रकार बड़े बड़े पर्वतोंको ढाह देती है उसी प्रकार वह राजा मधु भी समस्त संसारके राजाओं के हृदयोंमें जाज्वल्यमान अग्नि के समान विद्यमान था अर्थात् समस्त राजा सदा उससे भयभीत रहते थे ॥ ३००-३०१॥
एक दिनकी बात है कि किसी मधुके आज्ञाकारी राजाने मधुके लिये घोड़ा रत्न आदि अनेक पदार्थों की भेंट भेजी थी। जो लोग भेट लेजाने वाले थे दैवयोगसे नारायण स्वयंभूको उनसे में? 1 हो गई। तेजस्वी और अभिमानो राजा स्वयंभ ने शीघ्र ही उन भेट लेजाने वालोंसे प्रश्न किया
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