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च शनस्य पत्तन देवपत्तन ॥३॥ यत्र धान्यादिसंयुक्ता नराः सममंडिताः। कलाविज्ञानपारीणाः परमोत्साहिनो वभुः ॥३३॥ 174 सुदर्यः कामदीप्तांगा मृगाक्ष्यः पिकसुस्वराः। उत्त गस्तनभारेण नम्रा ईषत्सुमंदगाः ॥ ३४॥ सशोला, मुखचन्द्रश्च भूपितांत:- स्वधामकाः। दानपूजादिसंसक्ता बताचारलसत्क्रियाः ॥३४॥ गतागतः स्तनाश्लेवसंघीश्च परस्पर । कामिनां हृदये दाह कुर्वत्य | इच वायभुः।।३६॥ तत्रोपोणिको राजा राजते रजनीशचत् । कुवलयानन्दको लोकचकोराहादकारकः ।।३७॥ वृषप्कंधः प्रतायो च अत्यंत धर्मात्मा हैं सदा सत्य बोलनेवाले हैं एवं मानलक्ष्मीकी अभिलाषासे सदा ध्यानी और ज्ञानी हैं।३१ ॥
इसी मगध देशके अन्दर एक राजगृह नामका नगर है जो कि परम पवित्र है उत्कृष्ट है, सदा अनेक प्रकारकी ध्वजारोसे शोभायमान रहता है अतएव अपनी दिव्य शोभासे यह इंद्रकी राजधानी स्वर्गलोककी उपमा धारण करता है ॥३२॥ उस समय यह नगर अनेक प्रकारके धान्योंसे | व्याप्त था। इसमें रहनं वाले मनुष्य परम धर्मात्मा थे। नाना प्रकारके कार्य और कौशलोंके पारगामी | थे एवं प्रत्येक काम करने में पड़े रसाही थे इसीलिये वे राजगृहपुरकी शोभा स्वरूप थं ॥ ३३ ॥ राजगृहपुरके अन्दर रहनेवाली सुंदरियां भी कामदेवसे देदीप्यमान अंगकी धारंक थीं। हरिणियोंके समान नेत्रोंवाली थीं। कोकिलाओंके समान सुरीली थीं। विशाल स्तनोंके भारसे आगेको कुछ झुकी हुई थीं। मंद मंद चलनेवाली थीं । अत्यंत शीलवती थीं। अपने कांति परिपूर्ण है। मुखरूपी चंद्रमाओंसे अपने महलोंको प्रकाशमान करती थीं। दान पूजा आदि जितने भी पवित्र | कार्य हैं उनमें लीन थीं । वे जितनी भी क्रियायें करती थीं व्रत और आचारके अनुकूल करती थीं इसलिये उनकी सारी क्रियायें निर्दोष होनेसे अत्यंत मनोहर होती थीं तथा राजगृहपुरमें नर | नारियोंका इतना जमघट था कि वहांकी नारियां आने जानेसे तथा स्तन और आलिंगनोंके
संघर्षणोंसे कामियोंके हृदयों में काम जनित दाह उत्पन्न कर देती थीं। अतएव वे मनको हरण | 57 करनेवाली होती थीं ॥ ३४-३६ ॥
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