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________________ मल ३१ 調剤 :रणामोदर शर्मा नापि तथा सा परिज्ञाय तिरश्चक्रे ऽतिवेगतः । तदा लब्धापमानः सः घने गरबा तपोऽकरोत् ॥ १६० ॥ मासे मासद्वये यांते पारणामकरोन्मुनिः । हत्तपो दुषरं मत्वा राजा तद्वशमागतः ॥ १६१ ॥ बुद्धिषं या हा स्वत कति गुहुर्मुहुः । श्रस्याधीको दशो राजा तर्हि धोऽप्यस्त्यर्थं महान् ॥ १६२ ॥ वशीभूयमिता तस्य बुद्धिर्ष णापि लतिका । तत्सांगत्ये १८७ ॥ बुद्धिका कार्य यद्यपि देयाका था परन्तु वह धर्मको कुछ समझती थी इसलिये वह पुनः सुनि विचित्रमतिको समझाने लगी मुने! विषय जनित थोडेसे सुखकी लालसा से बिलकुल पासमें आये हुए मोन सुखको कोई छोड़ता नहीं सुना । मोक्षका प्रधान कारण तुमने दिगंबर लिंग धारण कर रखा है मोक्षका सुख बिलकुल तुम्हारे समीप हैं तुम्हें निन्दित विषय भोगोंकी लालसा कर उसे न छोड़ देना चाहिये। ॥ १८८ ॥ मृद मुनिपर उसके वचनोंका का प्रभाव पड़ सकता था । विचित्रमतिने अपने मुनिलिंग की कुछ भी पर्वा न की वह एक दम मूढ़ वनकर इसप्रकार कहने लगा सुन्दरी ! मुझे इस समय तो तुम्हारे संसर्ग से जगमान सुख ही रुच रहा है। जो सुख इंद्रियों के गोचर नहीं वह नित्य हो चाहे अनित्य वह वैसा हा रहे । मुनिके इन निर्लज्ज बचनोंसे वेश्या बुद्धि को यह मालुम पड़ चुका कि यह धर्माचरण से भ्रष्ट है इसलिये उसे बडा क्रोध आया और उसका पोर तिरस्कार किया जिससे मुनि विचित्रमतिको गाढ अपमान मान बड़ा कष्ट हुआ । सीधा वह वनको चला गया एवं मनमें किसी प्रकारका धर्माचरण न रख ढोंगसे वह एक एक दो २ मासके वाढ पारणा करने लगा जिससे रोजा पर भी उसका प्रभाव पड़ गया और वह विचिश्रमतिका अनन्य भक्त बन गया ।। १८६ - १६१ ॥ जिस समय विचित्रमतिका अनन्य भक्त राजा हो गया उस समय बुद्धिषेगा अपने मनमें बार २ विचारने लगी जब इस मुनिके बश राजा होगया मैंने श्रनप्रत ANA
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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