________________
मुनिः प्राप्य मोहांधोऽभूतपश्चुतः । १६३ ॥ पूर्ववरेण वेर' स्यात्पूर्वस्नेहेन भोगता। न दोषोऽस्त्यत कस्यापि तन्निंदी नरकं ब्रजेत् - ॥१४॥ तिर्ययोनिश्च मोहाहे निवेशो भन्नति स्फुट सत्वा स कुजरो जर तवायं मानवाधिप! ॥ १९॥ अस्य लिलोकप्राप्तिश्रवण
जातिसंस्मृतिः बभूधातो मजोऽयं ते नागृहोद्भक्षणं शुचा ॥१६॥ इत्याकार्य नपश्चिो चिंतयामास धिग्धन' । राज्य रामा सख बेतिनिर्चिपणोऽभूत्तदा नरेट् ॥ १७॥ साधिपत्यं तु दत्त स्वभाला रत्नमालया | सार्क संबसमापहे रत्नायुधनराधिपः ॥ १९८॥ योग्याश्रमानुत्ते व्यर्थ तपो भवति निश्चितं । यलाधमे मनो याति विलयं तत्तो विदुः ।। १६६ ।। तपांसि विधं शैले कृत्वाने तिग्मरो है तव अवश्य ही यह कोई महान पुरुष है वस मारे भयके वुद्धिषणा भी मुनिके वश गई । मोहसे - अन्ध हो मुनिराजने भी उसकी संगति करनी प्रारम्भ करदी और तपसे अपना मुंह मोड़ लिया। ॥ १६२-१६३ ॥ जिस किसी मनुष्यका जिस किसीके साथ बैर वा स्नेह होता है वह पूर्व भक्के | वैरके संबंधसे होता है इसमें किसीका दोष नहीं इसलिये किसीको बुरा भला कहना व्यर्थ है। १६४ ॥ मोहकी प्रबलतासे जीवको तिर्यंच योनिके अन्दर तिथंच होना पड़ता है।
राजन वजायुध ! वह विचित्रमति मुनिका जीव मरकर तुम्हारा यह हाथी हुआ है । तीनलोक का स्वरूप सुनकर इसे अपना जाति स्मरण होगया था इस लिये मारे शोकके इसने खाना पीना छोड दिया ॥ १९५-१६६ ॥ राजा रत्नायुधने मुनिराज वजूदन्तके मुखसे जब इसप्रकार हाथीके 5
पूर्व भयका वृतांत सुना तो उसने लक्ष्मी राज्य स्त्रा जनितमुख आदिको बहुत धिक्कारा । वह उनसे He विरक्त होगया। राज्य भार अपने पुत्रको प्रदान किया एवं अपनी माता रत्नमाला के साथ संयम Kधार लिया ॥ १९७-१९८ ॥ तपके आचरणका जो आश्रम बतलाया गया है यदि उस आश्रमकी |*
कुछ भी पर्वा न की जाय तो वह तपा हुआ तए भी व्यर्थ चला जाता है। यदि तप करते भी चित्त
पुणEETIREALERT