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दति । हारित तेन सर्वस्व वस्त्रापि च पापतः ॥ २८२ ॥ वपुःशषस्यितो भूत्वा म्लानास्यो गतधिक्रमः । तदोषाचारिभूपालः सुकेतुमिति सद्धलः ॥ २८३ ॥ भो भो ये मानिनो गोधा गुणिनो वंशधारिणः । न्यभूमौ न तिन्ति श्रुतशास्त्रक्विक्षणा २८३ ॥ | त्वं तु मानी भनी छत्री दानी क्षमविभूषणः । मैं क्या हारितस्यां च वयं तिठसि मूषवत् ॥२८५॥ शत्रुलाययशर वातभिन्नांगो निर्ययो धनं । सर्वहान्या महाशोकविह्वलीभूतमानसः ॥ २८६ ॥ प्राप्य तत्रैव पुण्येन नाम्ना सूरि' सुदर्श । पन्दित्या श्रुततत्वः स प्रा| परन्तु वह मूर्ख न माना टीक ही है जब विनाश काल आकर उपस्थित हो जाता है तब वृद्धि भी न उसके अनुकूल विपरीत हो जाती है पाप कर्मके प्रवल उदयसे राजा सुकेतुने क्रम क्रम कर धन देश |
सेना पटरानी सब हार दिया विशेष क्या जो उसके तन पर वस्त्र था जूभामें वह उसे भी हार चुका वस उसके पास केवल उसका शरीर रह गया उससे राजा सुकेतुका मुख फीका पड़ गया और वह सर्वथा पराक्रम रहित हो गया। जिस समय राजा सुकेतुकी यह हीन दशा हो गई उस समय | उसके वैरो राजाने सुकेतुसे इसप्रकार कहा-- __ जो पुरुष अपने मानकी रक्षा करनेवाले होते हैं । गुणी और उत्तम वंशके होते हैं तथा आगम 5
और शास्त्रोंके ज्ञाता होते है वे अपनी ही भ मिमें निवास करते हैं अन्यकी भ मिमें निवास नहीं करते। राजा सुकेतु ! तुम मानी धनी छत्रशाली और क्षात्रियोंके भूषण पुरुष रत्न माने जाते हो ||
जब जूआमें तुम पृथ्वीको हार चुके और वह दूसरेको हो चुकी तब गूगेके समान तुम इस पृथ्वी । दो पर क्यों रह रहे हो? तुम्हें अब इस पृथ्वी पर कदापि नहीं रहना चाहिये ॥ २८१-२८५ ॥ अपने
शत्र राजाके ऐसे वचन राजा सुकेतुको वाणके समान चुभ गये। हाथसे सब चीजोंके चले जा- al
नसे वह विक्षिप्त चित्त हो गया और शीघ्र ही वनकी ओर चल दिया ॥ २८६ ॥ वनके अन्दर उस | समय सुदर्शन नामके मुनिराज विराजमान थे। पुण्यके उदयसे राजा सुकेतुको उनका दर्शन हो
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