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पराग्य मंजसा ॥२८७॥ प्रव्रज्य दुष्कर भूरितपोभिः कृशतां गतः । देशद्रव्य महाशोकान्नात्य॑तमशुभाशयः ।।२८८॥ दीर्घकालमलं तप्त्या । - निदानमकरोदिति ! आयुःक्षये महामूदो विद्वानपि महाधनः । २८३॥ ममैव तपसतेन कलागुणविदग्धता । भूयाभू रिबलं चैव शत्रु पक्षा
महाजय ॥ २६॥ प्रांते सन्यस्य योगी स लांतवं कल्पमास्थितः । चतुर्दशाब्धिमानायुस्तनाललन सत्सब २६१ ।। तत्र व जाम्य भर - प भूपस्य पृथिवीमती । आललोकैकदा स्वस्नान सुप्ता गर्भगृहे सतो ।। २६२ ॥ सूर्य चंद्रमसं पद्मां धिमानाश्विसुरध्वजं । सिंह चैतान् | गया। उनके मुखसे उसने शास्त्रका रहस्य समझा । उसके चित्तमें एकदम संसार शरीर भोगोंसे 4 | वैशम्य हो गया । शीघ्र ही उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। अनेक प्रकारके घोर तपोंके तप| मेके कारण उसका सारा शरीर कृश हो गया। देश और द्रव्य आदिके चले जानेसे उस समय
यपि उसका चित्त सर्वथा मलिन न था बहुतसी मलिनता मिट चुकी थो तथापि विद्वान भी वह पापके तीन उदयसे आयुके अंत समयमें नितांत मूर्ख हो गया और बहुत काल पर्यंत तपके त । जाने पर भी उसने यह निन्दित निदान वाधा| मैं जो यह तप कर रहा हूं उसका फल मुझे यह मिलना चाहिये कि मैं पर जन्म में अनेक
कला और गुणोंका भण्डार हो । मेरे बहुतसे सैन्यकी प्राप्ति हो और शत्रुओंका समुदाय मुझे जीत IS न सके । यस अन्त समयमें उस सुकेतु नामके मुनिने सन्यास पूर्वक अपने शरीरका त्याग किया|
लांतव नामके स्वर्गमें जाकर देव हो गया। चौदह सागर प्रमाण उसने आयु पाई और नानाप्रकार के सुख वहां पर भोगने लगा। द्वारावतीके स्वामी राजा भद्रकी एक दूसरी रानी पृथिवीमती थी वह अपने गर्भ गृहमें सो रही थी कि एक दिन रात्रिके पिछले प्रहरमें उसे स्वप्न दीख पड़े । पहिले स्व- 7
नमें उस सूर्य दीख पड़ा । दूसरेमें चन्द्रमा तीसरेमें लक्ष्मी चौथेमें विमान पांचयेमें समुद्र छटमें * इन्द्रधनु और सातवेमें सिंह दीख पड़ा। सातो स्वप्नोंके देखनेके बाद उसकी नींद खुल गई। प्रातः
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