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अझ तस्य महादेवी रामदत्तति हिश्र तारा भोगप्रिया समांगत्वान्नानाभोगासनोस्सुकाः ।। २६ ।। सती प्रियानुकूलत्वात्कामिनीव मनो भुवः। रुपरंभोग्नतस्थुलवृतनतंयमंधरा | युग्मं । मंत्री तस्य गुणागारो घेदविदुब्राह्मणोत्तमः । श्रीभूतीत्यभिधो मान्यो लोकानां
सत्यवारया ।। २८॥ अन्यदा सरकारमा प्रतिज्ञा कैतवादिध । अधक्ष्य वेदलीक तदकरिष्यं गलच्छिदां ॥२६॥ लोकेऽथाभूत्तदा| स्यातः पत्तने राजसंसदि । ठासिपुत्रको भूत्वा स्वल्पभाषी च तिष्ठति ॥३०॥ नामधेयं तदा दत्तं द्वितीय तस्य हर्षतः । सिंहसेनेन सेनेन
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न करता था शत्रुओंके देशोंको राखमें मिलाता था और याचकोंको विशिष्ट धन प्रदान करता था
॥२३-२५ ॥ राजा सिंहसेनकी स्त्रीका नाम रामदत्ता था जो कि अपने गुणोंसे संसारमें प्रसिद्ध थी। भोगोंको प्यारा मानती थी और भोग भोगनेके जो भी आसन है उनमें सदा लालायित रहती
थी । वह रानी रामदत्ता अपने पतिके अनु कूल चेष्टा करनेवाली थी इसलिये सती थी । सुन्दरतामें 2 कामदेवकी स्त्री रति थी। रूपसे रम्भाकी उपमा धारण करती थी एवं उन्नत स्थूल और गोलाकार
नितम्बोंसे शोभायमान होनेके कारण मन्द मंदरूपसे गमन करने वाली थी॥ २६-२७ ॥ राजा सिंहसेनके मन्त्रीका नाम श्रीभ ति था जो कि अनेक गुणोंका भण्डार था। वेदोंका जानकार था। जातिका ब्राह्मण था और सत्य बोलनेके कारण समस्त लोकका आदरणीय था ॥ २८ ॥ एक दिन श्रीभूतिने छलसे यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं झूट बोलगा तो अपना गला छेद डालूगा ॥ २८२६ ॥ अपने सत्यवक्तापनेके कारण वह श्रीभ ति समस्तलोक नगर और राजसभामें प्रख्यात था एवं वह अपनी की हुई प्रतिज्ञाकी दृढ़ता बतलाकर बहुत थोड़ा बोलने वाला होकर रहने लगा
॥ ३०॥ श्रीभ तिकी यह कड़ी प्रतिज्ञा सुन राजा सिंहसेन बड़ा प्रसन्न हुआ और लक्ष्मीके भण्डार - राजा सिंहसेनने हर्ष पूर्वक मन्त्री श्रीभ तिका नाम सत्यघोष रखदिया ॥ ३१॥
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