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हायपर
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सखि । मादक्षाणां महाघानां वृद्धत्वं तरुणायते ॥ ३८ ॥ तिष्टेयं किमहं राज्ये जराकांतो विदधीः । दोक्ष ते बेत्कुमारो द्व॥३७॥ पत्रमादि चिर चिंत्य जन निर्वेदमानसः । संजयंतस्य पुत्राय बैजय ताय धीमते || ३६ || त्वा राज्यं माया पुत्राभ्यां सहितो नृपः । दिदीक्षं सकलं गं त्या मगधनायक ॥ ४० ॥ वैजयंताख्ययोगोद्रः सममे निःप्रमादवान् । क्रियाकांड भृशं शुद्धि कर्तुं प्रोद्यमानभूत ॥ ४१ ॥ शदर्श चाकपायाख्ये क्षणाशेषकपयः । तीर्थ करत्वमश्वासौ वैजयतस्तपो * लात् ॥ ४२ ॥ तदानीमेव देवेंद्राः कतु तत्फलोत्सर्व समायाह, जयध्यानवादिनः परमभक्तिकाः ॥ ४३ ॥ तत्क्षणे तौ गुणाबोधी मके समान सुन्दर ये दोनों कुमार तो दिगंबरी दीक्षा धारण करें और में वृद्धावस्था में भी राज्य के फासे में फला रहुं मुझसे बढकर संसारमें कोई मूर्ख नहीं । वस इस प्रकार बहुत देरतक अपने मनमें विचार कर राजा वैजयंतका चित्त संसार से विरक्त हो गया । कुल परम्परासे प्राप्त राज्यको राजा वैजयन्तने अपने पोते कुमार संजयन्तके पुत्र वैजयन्तको प्रदान कर दिया और वह समस्त परिग्रह का सर्वथा त्यागकर दोनों पुत्रों के साथ शीघ्र ही दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित हो गया ॥ ३५-४०॥ मुनिराज वैजयन्तने अप्रमत्त नामक सातवे गुण स्थानमें प्राप्त होकर समस्त प्रमादोंका सर्वथा नाश कर दिया एवं अपने चारित्रको शुद्धिका वे विशेष रूपसे प्रयत्न करने लगे । क्षीण कषाय नामक बारहवं गुणस्थान में उन्होंने समस्त कषायों का सर्वथा नाश कर दिया। विशिष्ट तपके वलसे उन्हों ने तीर्थंकर गोत्रका बंध कर लिया और उन्हें अन्तमुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । मुनिराज | वैजयन्तको केबल ज्ञानकी प्राप्तिका ज्ञान होते ही उनके केवलज्ञानका उत्सव मनानेके लिये शीघ्र ही इन्द्र आ गये । उस समय समस्त इन्द्रोंके मुखोंसे जय जयकार शब्द निकलता था और सबके
| सब प्रवलभक्तिके स्रोतमें मग्न थे । ४१ - ४३ ॥ गुणोंके समुद्र परम तपस्वी प्रवलकांतिके धारक वस्तु स्वरूपके जानकार क्षमारूपी भूषणसे शोभायमान एवं शास्त्ररूपी समुद्र के पारगामी उन संज
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