SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ KI TOTO .प | त्रिविधः पुद्गलोऽनन्तसंण्यासासंख्ययानिति ॥७७ अकालास्ते समात्यासाः कायाः पञ्चास्तिसंशफाः । जीवाजोवानवा बन्धसम्बरौ मिर्ज राशिौं ॥ ७॥ तत्त्वान्येतानि पुण्यनोभ्यामाख्याताः पदार्थकाः । आफ्नयो विवियो भाषद्रव्यभेदात्मकीर्तितः ॥ ७६ ॥ ॥ समायात्या. ॥ ७५-७६ ॥ जीव पुद्गल धर्म अधर्म ओर आकाश इन पांच द्रव्योंको अस्तिकाय कहते हैं। काल द्रव्यकी अस्तिकाय संज्ञा नहीं। जीव अजीव पासव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात | लातत्त्व है। इन्हीं में पुण्य पाप जोड देनेपर नव पदार्थ हो जाते हैं । जीव और अजीव तत्वका वर्णन 2 कर दिया गया। अब आसूव आदि तत्त्वोंका वर्णन किया जाता है भावासव और द्रव्यासक्के भेदसे आलवके दो भेद हैं। तन्दुल मत्स्यके समान आत्माके क्रोध आदि भावोंसे जो कर्म आवे उन भावोका नाम ही भावात्रव है । अर्थात् स्वयम्भरमण नामके अ-10 शान्तिम समुद्रमें एक महामत्स्य नामका मत्स्य रहता है । जिस समय वह अपने विशाल मुखको फाड कर सोता है उस समय उसके मुखमें अगणित जलचर जीव आते जाते रहते हैं। उन महामत्स्य | व के कानमें एक तंदुल नामका मस्य रहता है । महामत्स्यके मुखमें इसप्रकार जीवोंको आता जाता। 2 देख वह सदा यह विचार करता रहता है कि देखो यह महामत्स्य वड़ा मूर्ख है । इसके मुखमें इतने जीव अपने आप आते जाते हैं तब भी यह निकल जाने देता है यदि यह मुह वन्द कर लेवे तो सबके सब इसके पेट में जा सकते हैं परन्तु यह ऐसा नहीं करता यदि में ऐसा होता तो सवोंको । पेटमें रख लेता। यद्यपि वह तंदुल मत्स्य किसी जीवको सताता नहीं तथापि वह इसप्रकारके निदित विचार करता रहता है इसलिये उन निंदित विचारोंसे सदा उसके कर्मोंका आस्रव होता रहता। है उसी प्रकार चाहै हिंसादि पांच पाप किये जाय या न किये जाय श्रात्माके अन्दर जो क्रोध 2] आदि भावोंकी उत्पत्ति होता है उन क्रोध आदि भावोंका ही नाम भावासब है ठीक ही है जो
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy