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व्य समुत्पस्थानकानन्दमयोऽभवत् । विघ्ना अयुत्सवार्यते सतां निभूतचेतसां ॥७१॥ पृथग्भून' चकाराशु स्वात्मानं देहत काष्ठादग्निमसि कोषादग्धारसपिरिवामलं ।। ७२ ॥ तत्कृतं स सहिष्णुः सन् धनदेहो नगाकृतिः । निश्चलो निति यातः शुक्लध्या नेन शुद्धाः ॥ १३ ॥ अतोद्रिय पद पाप मायाकाय विवर्जितं । धर्ममावादयोनित्य कर्मामावादगोचर ॥ ४॥ यत्रै कस्मिन्ननन्ताहि निष्ठति सिद्धराशयः। सूक्ष्मादिगु मधेदत्वात्सुन सुक्ष्मातिसूक्ष्मनः ॥ ७५ ॥ सध्यनन्तजीवाना फंदे स्थितिरुहता। तेऽनन्ता कानंतभेदेन यदा स्थूलीभवत्यहो ॥ ७६ ॥ पूरयित्वा तदा लोकाकाशं यांत्यप्रतो ध्रुवं । अतः सूक्ष्मातिसूक्ष्म च जोवतच्च निगद्यते ।। ७७ ॥
समय उन्होंने अपना शरीर वज के समान कठोर बना लिया। पर्वतके समान वे निश्चल बने रहे ! जिससे विशुद्ध बुद्धि के धारक व मुनिराज शुक्लध्यानके वलसे मोक्ष सुखके पात्र बन गये ।उन पूज्य * मुनिराजने ममता और शरोरसे रहित अतींद्रिय-मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। पवित्र धर्मकी कृपासे वे जन्म जरा मरण रहित हो गये एवं कर्मों के सर्वथा नष्ट होजानेसे वे तत्क्षण सिद्धालयमें जाकर
विराज गये इसलिये सब लोगोंके नेत्रों के अगोचर हो गये ॥७०-७४ ॥ सिद्धगण सूक्ष्म अन्या IS वाध जो निजो गुण हैं उनके स्थान एवं सक्ष्म २ जो पुदगलोंको भेद होता है उससे भी अत्यन्त द सदम होते हैं इसलिये जहां पर एक सिद्ध आत्मा रहता है वहीं पर अनंतानंत सिद्ध रहते हैं । सुई।
की अण्णोके समान कन्दमें अनन्तानन्त जीव रहते हैं ऐसा शास्त्रका उपदेश है। यदि वे अनन्ता
नन्त जोष स्थूल शरीर धारण करलें तो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमें भी न समोकर वे अलोR काकाश तक चले जा सकते हैं इसलिये जीव तत्वको सूक्ष्मातिसूक्ष्म वतलाया गया है। यदि जीव | तत्त्वको सूक्ष्मातिसूक्ष्म न माना जायगा तब सिद्ध जोवोंको भी संख्यात मानना होगा । उससे मोक्ष स्थानके भर जाने से मोक्ष को ही समाप्ति हो जायगी—किसीकी भी मोक्ष न होगी एवं मोक्ष की कारण स्वरूप धार्मिक क्रियाओं का सर्वथा नाश हो जायगा इसलिये कर्मों के सर्वाथा नष्ट हो
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