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________________ KPAPER यथा तदा सिद्धा भवेयुः संख्यिता यतः स्वाग्रजांगे । तदा मुक्ति समाप्तिः स्यात्प्रांतोऽभूद्धर्मकर्मणोः ॥ ७८ ॥ अतः सूक्ष्मातिसूक्ष्मं च जीवतत्वं द्विधः । स्वभाषा समप्यशिय तु न जायते ॥ ७६ ॥ अधो निर्वाणकल्याणपूर्जा कर्तुं सुराधिराः । समदुषे गतः स्वस्थ मूर्तयः ॥ ८० ॥ चतुर्विधामरा नेदुर्गेयं गायंति सन्मुनेः । नमम्नागेट् सदा स्वस्य भ्रात्राकृतिप्रतियत् ॥ ८१ ॥ क्षणोद्र तृतीयागमः कुधा । अहींद्रो नागपाशेन ताम्बबन्धाखिलान् खगानू । ८२ । महाक्रोधःरुणीभूतलोचनो धरणो जगौ । तान् दुष्टानिति वाणोघेची भिस्तद्भयप्रदैः ॥ ८३ ॥ भो भो मतधियः खेदा युष्माभिर्मत्सहोदरः । निर्मदो निर्मलः शानो ध्यानस्थो हि कथं जानेसे स्वभावसे ही जीवतत्व सूक्ष्मातिसूक्ष्म है परन्तु मोक्ष स्थान छोटा नहीं हो सकता किंतु कितने भी मुक्त जीव क्यों न जाय उन सत्रोंका उसमें समावेश हो जाता है | ७५-७६ ॥ मुनिराज संजयन्तने घोर उपसर्ग सहकर जव मोक्ष प्राप्त कर ली उस समय अपने २ वाहनों पर चढ़कर शीघ्र ही समस्त देव उनके निर्वाण कल्याणकी पूजाके लिये आ गये। मुनिराज संजयन्तके निर्वाण कल्याणकी खुशी में चारो निकायोंके देव आनन्द नृत्य करने लगे । मुनिराज संजयन्तके गुणोंका गान करने लगे । मुनिराज सञ्जयन्तके निर्वाण उत्सव में उनके छोटे भाई मुनिराज जयंतका जीव नाग कुमारोंका इन्द्र भी आया था वह वार २ अपने बड़े भाईकी मूर्तिका स्मरण करने लगा । अवधि ज्ञानके वलसे उसे इस बातका भी पत्ता लग गया कि विद्युद्दष्ट्र आदि दुष्ट विद्याधने मुनिराज सञ्जयन्तको विशेष त्रास दिया है जिससे उसका हृदय मारे क्रोधके भवल गया । शीघ्र ही उसने नाग पाशसे समस्त विद्याधरोंको बांध लिया। प्रवल क्रोधसे उसके दोनों नेत्र लाल हो गये एवं महा भयप्रद वाण स्वरूप वचनों से समस्त विद्याधरोंको ताड़ता हुआ वह इस प्रकार कहने लगा रे दुष्ट विद्याधरो ! मेरे बड़ े भाई संजयन्त मुनि अहङ्कार रहित निर्मल शांत और दृढ ध्यानी थे तुम सबने मिलकर उन्हें क्यों मारा ! तुम लोग शीघ्र कहो तुम्हारा उन्होंने क्या अपराध किया 1 Ke
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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