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पक्ष
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४०६॥सिंधुर: सिंधुरा लग्नाः स्पंदनैः स्यन्दना सम। सप्तिमिः सप्तयो गाद सादिनः सारिभिः सह ॥ १०७॥ कुन्ताकुरित महाजन्यं बगामगि गदागदि । कशाकशि तदा जज्ञे वाणावाणि कराकरि ॥४०८॥ शांडाशांडि तयोर्याद सौरासोरि पदापदि । उपलोपमित भीरूणां प्राणहृत् सुभटोत्सव ॥ ४०६ ॥ (युग्म ) स्वायंभु तदा सैन्य भेजे काष्ठास्टपरा भिया। माघवीयास्त्र भिन्नं सत् का भोर्मर णतो भुवि ।। ४१ ॥ निजं बलं गतच्छाय दृष्ट चा नारायणोऽमितः । प्रलम्बम्नेन सर्घि वा समुत्तस्यौ हगिरेः ।। ४११ ॥ करेणून 7
पातयामास भूधरानिय गोत्रभित् । इयत्करर्दिधानाथः फालाभारतमांसि धा ॥ १२॥ उकारच्युतकोपमा । मुख्यांगे भग्नतां याते व शहाथियोंसे भिड़ गये थे,रथ रथोंसे घोडे घोडोंसे घुडसवार घुडसवारोंसे भालेवाले भालेबालोंसे खग
वाले खड्गबालोंसे गदावाले गदावालोंसे कोडावाले कोडावालोंसे वाणवाले बाणवालोंसे लड़ने लगे।
बहुतसे सुभट हाथों हाथ युद्ध करने लगे तथा सड़ासीवाले सडासीवालोंसे और इलमूसल वाले व शाहलमूसलवालोंसे युद्ध करने लगे । बहुतसे सुभट आपसमें परोसे युद्ध करने लगे एवं बहुतसे आपस l
में पत्थर लेकर युद्ध करने लगे इस प्रकार डरपोकोंको प्राणोंका नाश करनेवाला घोर संग्राम होने । लगा ॥ ४०७-४०६ ॥ राजा मधुके तीक्ष्ण अस्त्रोंसे छिन्न भिन्न हो नारायण स्वयम्भ की सेना | मारे भयके जहां तहां दिशाओंमें भाग गई ठीक ही है मरणसे अधिक संसारमें कोई भय नहीं । ॥ ४१०॥ जिस समय नारायण स्वयम्भ ने अपनी सेनाको हतप्रभ और जहां तहां भागता देखा उस समय उसको आत्मा क्रोधसे भवल गई एवं जिस प्रकार पर्वतसे केहरी उठता है उसी प्रकार है वह भी वलभद्र के साथ शीघ ही युद्धके लिये उठकर तयार हो गया ॥४११॥ जिस प्रकार इन्द्र बड़े । वड़े पर्वतोंको ढाह देता है और सूर्य कज्जलके समान काले अन्धकारको तितर बितर कर देता है उसीप्रकार नारायण स्वयंभ ने वाणोंके समूहले मदोन्मत्त हाथियोंको धराशायी बना दिया ॥१२॥ सेनाके मुख्य अङ्ग हाथियोंको इस प्रकार भग्न होता देख राजा मधुका चित्त हिलने लगा एवं वह मन ही मन इस प्रकार विचार करने लगा कि यह स्वयंभू वड़ा दुर्धर शत्रु है सामान्य नहीं । किस
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