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नोपपनोपद्यते ॥ १५७ ।। इति दुय । १५८ | स्वच्छ पा धरया राजकल्य शान्तिः प्रजायते । हैवानिार्धाप्तिरतः स्पोक्रियतेऽर्थतः १५६ ।। ( संबंधगुप्तम ) अमुह,शसिद्धयर्थं वपुष केशवः शिवः। चंदनैश्चंदनरहमईयामास सा परिः ।। १६० ॥ ( समास गुप्तमदः ) अष्टमी चन्दसकाशै स्तंदुलैः सुद दैलन् । अपामर्हडिजनं चको भूरिभूत् च भक्तिनः ॥ १६१ ॥ मन्दारकुसुमत्रातैरिया ।
सकेगा इसलिये पूजा आदिका मार्ग जो शास्त्र के अंदर पुष्ट किया गया है उसको नलोपना चाहिये IN इसलिये जल आदिसे जो भगवान् जिनेंद्रको पूजा की जाती है वह पापोंको उत्पन्न नहीं करती किन्तु पुण्योत्पादक होती है । पुनः शंका
भगवान् जिनेन्द्रके भक्तोंका यह कहना है कि हमें भगवान् जिनेंद्रका स्वरूप वा उनके गुणोंका IN/ स्मरण करनेसे ही आनन्द प्राप्त हो जाता है इसलिये इस विषय में हमार ( शंकाकारका ) यही
खास लक्ष्य है कि जब गुणोंके स्मरण करनेसे हो आनन्द प्राप्त हो सकता है तब जल आदिसे । पूजाका करना व्यर्थ है इसलिये भगवान जिनेन्द्रको जा जलको धारासे पूजा को जाती है वह हिंसाको कारण होनेसे उपयुक्त सिद्ध नहीं हो सकती ? उत्तर-जलको स्वच्छ धारासे भगवान जिनेन्द्रका पूजन करने पर गज्यमें विघ्नोंकी शांति होती है तथा इसी लोकमें अभीष्ट अर्थको प्राप्ति होती
है इसलिये जलको धारासे भगवान् जिनेंद्रकी पूजा की जाती है । इसप्रकार अर्धचको स्वयंभूने जलB को धारासे भगवान जिनेंद्रको पूजा को ॥ १५६-१५६ ॥ कल्याण स्वरूप अर्धचको उस स्वयंभने ।
इस लोक और परलोकमें शरोरके कल्याणकी सिद्धि के लिये शीतलता प्रदान करनेवाले चन्दन द्रव्यA से भगवान जिनेंद्रकी पूजा की ॥१६०॥ जो तंदुल अखण्ड थे और उज्ज्वलतामें अष्टमीके चंद्रमा
की तुलना करते थे उन तंदुलोंसे स्वयंभ नारायणने विशाल वितिको प्राप्ति की अभिलाषासे भक्ति ज पूर्वक भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की ॥१६१॥ समस्त प्रजाको रक्षा करनेकाले उस चक्रवर्तीने जिनका - रस झन्कार करते हुए भोरोंसे पीया गया है और जो अत्यन्त मनोहर हैं ऐसे मन्दार जातिके
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