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Nawariya
जोनप जिन। गुजदल्या लसंपीतमकरदमनोरमै. ॥ १२ ॥ चभिचारधीधोरं घृतपूरादिजातिमिः । अपीपूमदसौ सर्वसाम्रा ज्यस्य विभूतये ।। १६३ ॥ ज्वलत मेप्रस्थं वा पतंग वा पुरोहतः। चर्करोतिस्म लोकावः केवलावगमाप्तये ॥१६५॥ चन्दनागुरुकपूर पूरधूपमनोक्षिपत् । कर्मणां हानये राजा गन्धपूरितादचयं ।। १५ ।। निकट शोऽसौ समुत्तार्य लोकेशस्य पुरः पतिः । फलानि श्रीकलादीन्यम्मुत्सल्फलातये ॥ १६६ ॥ जन्ममृत्युजरादानां दु:खामा हानिहतधे । स भाषो भवमाशाय महाघे प्रांजलिईदौ ।। १६७ ।।
संपूज्य नगमाकोष्ठ भ्रातरौ तरूपतः शुभौ । धत्वा तत्वामृत सीरी पप्रच्छे नि जिन नमन् ॥१६८ ॥ हे नाथ ! जगतां बन्धो ! कमांद्रि PA कल्प वृक्षोंके पुष्पोंसे भगवान् जिनेंद्रकी पूजा की।१६श उत्तम बुद्धिकाधारक वह नारायण स्वयंभ समस्त IP
साम्राज्य विभूतिकी प्राप्तिको अभिलाषासे उत्तमोत्तम नैवेद्योंसे पूजा करने लगा जो नैवेद्य क्षीर K और घृत आदि अतिशय उत्तम पदार्थोंसे तैयार किये गये थे ॥ १६३ ॥ अर्धचकी स्वयंभूने केवल
ज्ञानकी प्राप्तिको अभिलाषासे दीपकसे भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की, जो दीपक ऐसा जान पड़ता
था मानो सुवर्णमयी मेरु पर्वतका यह पत्थरका खण्ड है अथवा यह देदीप्यमान सूरज है ॥ १६॥ A जो धूप चन्दन अगुरु और कपूरसे तैयार को गई थी ऐसी धूपसे समस्त कर्मोके नाशकी अभि
लाषासे राजा स्वयंभने भगवान् जिनेन्द्रकी पूजा को उस धुपकी इतनी उस्कट सुगन्धि थो कि उससे - समस्त दिशाओंका मंडल महक उठा था ॥ १६५ ॥ अर्धचक्री स्वयंभूने उत्तम फल मोक्ष फलकी
प्राप्तिकी अभिलाषासे श्रीफल आदि फलोंसे भरी रकेवीको तीन वार भगवान् जिनेन्द्र के सम्मुख | 5/ उतारी और उन उत्तम फलोंसे भगवान् जिनेन्द्रकी पूजा की ॥ १६६ ॥ अन्तमें जन्म मरण आदि
और वृद्धावस्था आदिदुःखोंकीशांतिको अभिलाषासे संसारके विनाशार्थ चक्रवर्ती स्वयंभने हाथ जोड़ भगवान् जिनेन्द्रको महार्घ दिया अर्थात् महाघसे भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की ॥ १६७ ॥ वस इस प्रकार आठो द्रव्योंसे भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्रको पूजा कर वे दोनों भाई धर्म और स्वयंभु समवसरणके नरकोठेके अन्दर बैठ गये । भगवान जिनेन्द्र जिस धर्मामृतका उपदेश दे रहे थे उसे |
RESULYRI