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________________ KAPAKAK 199AAY सामारी दुष्टां नखरे र खरः ॥ ४३१ ॥ बलभद्र बलोद्राहुर्मुष्ट्या स्फोटयित्योदर तस्या निःसृत्यासौ पतन् गिरौ ॥ ४३२ ॥ लाघव्या विद्या तेन दूध गगनगामिना । व्योभयानमधि तं मङ्गामा सः ॥ ४३३ ॥ पार्थ पार्य जलं तत्र फार कार' प्रवृत्तिको स्थायं स्थायं स्थिरो गन्तुमिच्छतः स्म तदा त ॥ ४३४ ॥ गत्य बलं नोत्वा गत्वा श्रीखे बराचले सिंहभूत्वारुणाशी सा खादितु तं समागता || ४३५ ॥ तदा शीरी महामन्त स्मृत्वा तां दृढमुष्टिभिः । जघान चरणन्यासकं पिसांगोऽशनिः । ४२६ । दुर्जय तं समावेद्य व्यालवदुर्धर तु सा । गृहीत्वा द्व जाकर पहुंच गये । ४३१ - ४३३ ॥ गङ्गा सरोवर पर पहुचकर उसका जलपान किया। अनेक प्रकारकी चेष्टा कीं एवं कुछ देर विश्राम कर जिस समय आगेको चलनेके लिये उद्यत हुए कि इतनेही में वह भ्रामरी विद्या बलभद्रको विजयार्घ पर्वत पर उठाकर ले गई एवं सिंहका रूप रखकर उसे पानेके लिये तयार हो गई । बलभद्रसे उस समय और कोई उपाय नहीं वना । ग़मोकार मंत्र का स्मरण कर वे वज्रके समान कठोर होकर कठोर मुष्टियोंसे उसे मारने लगे । वलभद्र, जिस समय उसे मार रहे थे पैरोंके जहां तहां पड़नेसे उसका शरीर चल विचल होता था । जब भ्रामरी for यह सोचा कि यह जल्दी जीता नहीं जाता और सपके समान महा भयङ्कर है तो प्रवल पराक्रमी उस बलभद्रको मजवृत्ती से पकड़ लिया और एक विशाल शिलाके नीचे जाकर दवा दिया वस देवी तो वलभद्रको दवाकर किनारे हो गई इतनेही में अपनी स्त्रीके साथ उस पर्वत पर क्रीड़ा करने के लिये विद्याधर महाचूल भी आ गया। जिस शिलाके नीचे वलभद्र धर्म दबे पड़े थे उस शिला पर महा चूलकी दृष्टि पड़ गई । वलभद्रके हलन चलनसे वह शिला हलती चलती थी शिलाको देखते ही विद्याधर महा चूलने समझ लिया कि इसके नीचे कोई व्यक्ति है और यह मंत्र | से कीली हई है बस चकोर पक्षीके समान चञ्चल नेत्रोंसे शोभायमान और विशाल भुजाओं के धारक विद्याधर महाचुलने शीघ्र ही शिलाको उखाड़ डाला। शिलाके नीचेसे वलभद्र धर्म वाहिर ॥ ४३२ ॥ मेोरूपमादाय घात KYKkvk 香剤
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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