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तदा देवो वापया गंभीरया बळ । गर्जघनरवाशंका दधत्या केकिमुहया ॥ १८४ ।। साधु पृष्ट त्वया वत्स! भब्यानां सुहितं मतं । । xणु दत्तावधानः सन् गिदाभि समासतः ॥ २८५ ॥ हिसाकरा असत्या ये परस्त्रीधनतस्कराःमायाहङ्कारसंयुक्ता सदा छिद्र । प्रकाशकाः ॥ १८६ ।। कृतघ्नाः पापिनः श्वभ्रं यांति दुलार्ण प्रति । दानिनो देवपूजास्तिापसाव जितेंद्रियाः ॥ १८७ ।।
निर्मला मनसा . वत्स! मृदयो माधुरोरसाः । गुरुमक्ता नरा ये बै स्वर्ग योति शिवारूपदे ।। १८८ ॥ स्वकृत्यार्थ च PA कुति स्नेहं ये ऋ रदर्शनाः। अंतर्दशाशयाः सेा बहुमायायियताः ।। १८६ ॥ वहासिनो हि मूढाश्च बहुस्वप्ना
ऐसा प्रश्न होनेपर भगवान जिनेंद्र गंभीर वाणीसे उसका उत्तर देने लगे। भगवान जिनेंद्रकी वाणी उस समय इतनी गंभोर थी कि वह गर्जते हुए मेघकी धनिकी शंका उत्पन्न करती थी और उसके सुनने मात्रसे मयूर गण अतिशय आनंदका अनुभव करते थे। भगवान जिनेंद्र कहने लगे प्रिय
वत्स ! तुमने वहत ठीक पछा । इसप्रकारके उपदेशको सुनकर भव्य लोग अपना वास्तविक हित 2 संपादन कर सकते हैं, ध्यान लगाकर सुनो किस कर्मका क्या फल है मैं संक्षेपसे कहता हूं
जो मनुष्य हिंसा करने वाले हैं । असत्य बोलने वाले हैं। पराई स्त्री और पराये धनके चुराने K वाले हैं। छल छिद्र कपट और अहंकारके पुञ्ज हैं। सदा पराये छिद्र प्रकाशने वाले हैं, कृतघ्न और
पापी हैं वे दुःखोंके समुद्र स्वरूप नरकमें जाते हैं किन्तु जो मनुष्य दानी हैं । सदा भगवान जिनेंकी पूजा करनेवाले हैं। तपस्वी हैं इन्द्रियोंके जीतनेवाले हैं। निर्मल चित्तके धारक हैं। कोमल
परिणामो और मधुर बोलने वाले हैं और निम्रन्थ गुरुओंके भक्त हैं वे मनुष्य अनेक कल्याणोंके 19 स्थान स्वर्गमें जाकर जन्म धारण करते हैं ॥ १८४-१८८ ॥ जो मिथ्यादृष्टि जीव अपने प्रयोजन -
के लिये दूसरेके साथ स्नेह जनाते हैं। अन्तरंगका अभिप्राय जिनका दुष्ट रहता है । सदा ईर्षा करते रहते हैं । छल छिद्र कपटमें सदा रंगे रहते हैं । बहुत खानेवाले होते हैं तथा बहुत सोनेवाले और आलसी होते हैं वे मूढ़ पुरुष तिर्य च गतिमें जाकर जन्म धारण करते हैं जहाँपर कि उन्हें
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