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मेरुनिभृतं ॥ ५९॥ अथ जम्बर्मात द्वीपे भारतं क्षेत्रमकम । विद्याधरावलस्तत्र राजतं राजतोपमः ॥ ६॥ तस्य पूर्वदिशायां च सरिस्पंचसमागमः | आद्या कुसुमयत्याख्या हरिवत्यभिधाऽपरा।।६१॥ सुवर्णगजवल्यी च चन्द्रवेगा च पञ्चमी । न्यक्षिासंगमे तासा मगाधे मलिले खलः ०६२ ॥ क्षिप्टवाय पुरमध्ये स समावातोऽपकारकः । पदहन खगान् सर्वान् पिएडोकत्य जगाविति ।। ६३ ।। अयं पापी महाकायो दानको मानवाशनः । सर्वान् विद्याधरानस्मान् पृथकृत्यात्तु मास्थितः ॥ ६४ याणखड्गादिशत्रौद्युनिष्कपं सर्वभक्षणं। | इंष्ट्र नामका विद्याधर विमानमें ओठकर उनके ऊपरसे निकला । मुनिराज संजयन्तक साथ उसका पूर्व भवका वैर था इसलिये पूर्व भवकं वैरक सम्बन्धसे उसे शीघ्र ही जाति स्मरण हो गया । पूर्व | भवके बैरसे मारे क्रोधके वह भवल गया एवं परम ध्यानी उन मुनिराजको वह पत्थर मुक्क लाठी। | और धक्कोंसे मारने लगा। मेरु पर्वत समान निश्चल उन मुनिराजको मारनेकरे इच्छासे दुष्ट विद्याधरने अपने विद्यावलसे आकाशमें उठा लिया और शीघ्र ही लेकर चल दिया।
इप्ती जंवू द्विपके भरत क्षेत्रमें एक विजयाचं नामका विद्याधर पर्वत है जो कि चांदीके समान सफेद वर्णका है । विजयार्ध पर्वतकी पूर्व दिशामें कुसुमवती, हरिवती, सुवर्णवती, गजवती और न चंद्रवेगा नामकी पांच नदियोंका समागम है। दुष्ट विद्याधरने उन्हीं पांचों नदियोंके समागमके
आगाथ जलमें परम पवित्र मुनिराज संजयंतको लेजाकर पटक दिया। वह निर्दयी मुनिराजको पटक कर अपने नगामें आ गया। भेरी बजाकर सयस्त विद्याधरोंको इकट्ठाकर लिया और उनसे इसप्रकार कहने लगा। विशाल शरीरका धारक मनुष्योंका खानेवाला राक्षस यह महा पापी है । हम सब विद्याधरों
को एक एक कर खाने के लिये यहां पर स्थित है। निर्दयी सर्व भक्षी और हम सबोंको खानेकी अभिलाषा रखनेवाले इस दुष्टको वाण खग आदि शस्त्रोंसे हम सबोंको मिलकर मार डालना चा
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