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神野市村橋
おおおく
कृतोऽयं विधिनः । गर्यो परि पुरोषस्य धिरज संचकं ततः ॥ ३४५ | हत्वा रम्येण वस्तरेण पिधाय स्थापित यदा । तदाऽपनपुरीपाट गर्त भ्रमन्निभे || ३४६ || विधिज्ञा यं प्रकुर्वति स विधिनों प्रतीयते । गुरुणा रविणा जम्माराविनापि महोबा | ३०७ ॥ अं पर्गतगभीरा पामीति चावगम्यते । इति चक्रु' न शक्येत तिने पानगति शुन्योऽपि चपला त्व'चलः त्मिकाः । चर्कर्ति किमनर्थ नालनृणां पि सुन्दराः ॥ ३४६ ॥ अभिरूपाः सुराः सर्वे ऋषयोऽपि बनाश्रिताः । योषितां नैव जानंति चरित्र' स्वमनागतं ॥ ३५० ॥ तद्वासरतो दुःख' तत्राचतिष्ठते सकः । दीयमानं तथा धान्यं सुजानो ध्वांक्षयः ॥ ३५६ ॥ मनोहर वसे उसे ढकवा दिया और बढ़ चादरसे सेठानी कार्याांकीने उस पर बैठनेके लिये मृगकेतुसे कहा । कामान्ध मृगये तुको इस रहस्य के समझने की बुद्धि कहां थी वह शीघ्रही उस पलंग पर जा बैठा और नरकके समान दुःखदायी उस विष्टासे परिपूर्ण गढ़में जाकर पड़ गया । ३४४-३४६ । ठीक ही है चतुर लोग जिस चतुरताको करते हैं उस चतुरताका हर एकको जल्दी पता नहीं लग सकता विशेष क्या जिनके अन्तरङ्ग गम्भीर हैं वे जिस बातको करना चाहते हैं उसे और की तो क्या वात महान भी विद्वान बृहस्पति सूर्यदेव और इन्द्र भी नहीं जान सकते। ठीक ही हैं जल में रहनेवाली मछली कब और कैसे जल पीती हैं यह हर एक नहीं जान सकता । चञ्चल चमकीली और देखनेमे सुन्दर भी दिजली जिस प्रकार घोर अनर्थ कर डालती है उसी प्रकार ये स्त्रियां भी भड़कीली हंसी हंसने वाली चञ्चल और परम सुन्दरी दीख पड़ती हैं परन्तु चञ्चल चित्त पुरुषों का ये घोर अनर्थ कर डालती हैं । इन स्त्रियोंके चित्तोंमें क्या क्या चरित्र विद्यमान रहते हैं उन्हें औरकी तो क्या वात विद्वान देव और वनमें रहनेवाले ऋषि मुनि भी नहीं जान सकते। कामी मृगकेतु जिस दिनसे उस गढ में पड़ा अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगता हुआ वह वहीं पर पड़ा रहा एवं जिस | प्रकार काकको टुकड़ा डाल देते हैं उसी प्रकार कार्यांांकी जो उस मूर्खको खानेको देती थी उसे ही वह खाता रहा और अपनी मृत्युके दिन व्यतीत करने लगा ॥ २४७-३५१ ॥
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