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नन इभेशमित ।। ३० ॥ शनकैः शनके कार्यसिद्धिः पुस प्रजायते । शारदो व फलप्राप्तिः शुभकालानुरागिणः। ॥ ३६१. निराम्येति मदोत्त इन्धराधरतस्थितः । उवाच पर्वतस्फोटकठिन कठिनं मधुः ।। ३६२ ।। दुर्जया व्याधयो दुष्टा इंतव्या अविलम्वतः अन्यथायतिविध्वंसासुप्रणाशकरा बलात् । ३६३॥ स्फदशौ तमभानो चक्र संयोजयत्यपि । कोशिकाश्व प्रणश्यन्ति रणे रणविदि
सामादित्रयमुलु'ध्य विद्वत्सु बलिभिनरः । योज्यते निग्रहोपायो नान्या शर प्रतिक्रिया ॥ ३९५ ॥ निमितर्यमाणो - नहीं हो सकती उसी प्रकार समय देखकर धीरे धीरे ही पुरुषोंको कार्य सिद्धि होती है जल्दी करE नेसे कोई भी कार्य सिद्धि नहीं हो सकतो । राजन् ! आप जो शत्र के साथ युद्ध करने का प्रयत्न कर
रहे हैं वह विचार कर ही आपको करना चाहिये ।। ३६७-३८१ ॥ राजा मधु तो उस समय अहं. K कार रूपी उत्तुङ्ग पर्वतको चोटो पर चढा हुआ था वह मन्त्रियोंकी उचित भी बात कब माननेवाला
था उसके चित्त पर मन्त्रियोंके वचनोंका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा प्रत्युत पर्वतको टूक २ करने वाले वज्रके समान इस प्रकार वह वचन कहने लगा- जो व्याधियां दुष्ट और दुर्जय हैं जल्दी जीतीं नहीं जा सकतीं उन्हें जहां तक वने बहुत शीघ्र
नष्ट कर देना चाहिये यदि इनके नाशका शीघ्र उपाय नहीं किया जायगा तो आगामी कालमें ये
अनेक प्रकारकी हानियां करनेवालों होंगी और प्राणोंकी नाशक बनेंगी। जिसका प्रकाश चारो ओर - फैल रहा है ऐसा सूर्य जिस समय उदित हो जाता है उस समय जिस प्रकार उलक पक्षी छिपd
जाते हैं-सूर्यका सामना नहीं करते उसी प्रकार संग्रामके अन्दर रणकला वेत्ता जिस समय में IS चक्र लेकर खड़ा हो जाता हूं उस समय शत्रुओंका पता तक नहीं चलता। जो पुरुष वलवान हैं वे
शत्रु ओंके लिये साम दण्ड और भेद इन तीन प्रकारकी नीतियोंका उल्लंघन कर केवल दाम नीति का आश्रय करते हैं-शत्र ओंके निग्रहका ही उपाय सोचते हैं क्योंकि विना निग्रहके उपायके
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