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क्रियांहोनोऽक्रियाहीनो न मन्यते । अप्राम्धनो न मन्येत प्रारधनोनो न मन्यते ॥ ३८१॥ पुरानो जीयते स यदा विक्रमसत्पदं । ने। भ्यति त्वां तदायस्था दुबगोचरतामितां ॥ ३८२ ॥ ब्रह्मात्मभूवचः श्रत्वा जगजे गर्जनान्वितः! खेजगर्जसमाकर्ण्य कंठौरव दया परः॥ ३८३ ॥ इयाय गानं सोऽपि ब्रह्मचारी कलिप्रियः । अन्योन्य पमुत्पारय नारदो नारदोरदः ॥ ३८४ ॥ दूतनाशं समाकl
सकृत्कॉपतविग्रहः । हन्म्यहं साइसं तूर्ण व्याहत्येति समुत्थितः ॥ ३८ ॥ वलेन महता सार्क सा तं कर्तुमुद्यतः ! चचाल दाप. | धन भी नहीं मानता है प्राग्धन भी नहीं मानता है ऐसा कहनेसे विरोध सरीखा जान पड़ता है इसलिये इसका तात्पर्य यह है कि जो पुरुष क्रिया हीन है अर्थात् निष्किय है-कृत कृत्य है उसे , किसीके माननेको आवश्यकता न होनेसे वह भी किसीको नहीं मानता तथा जो अक्रियाहीन है। * अर्थात् निन्दित क्रियाओंको प्राप्त है वह उद्दण्ड है वह भी किसीको नहीं मानता है। जो महानु
भाव अप्राग्धन है अपूर्व संपत्तिका स्वामो है वह भी किसीको नहीं माना गोंकिकृतकृत्य होनेसे |
उसे किसीके आदरको आवश्यकता नहीं रहती तथा जो प्राग्धन है जिसको कुछ धन प्राप्त हो | - चुका है वह भी घमण्डमें आकर किसोको कुछ नहीं पछता इसलिये वह भी किसीको मानना नहीं ka चाहता। यह तुम निश्चय समझो वह तुम्हारे सामने टिक नहीं सकता क्योंकि तुम संसारमें एक
प्रवल पराकमी हो जिस समय वह तुम्हारा सामना करेगा उस समय वह दुःखदायी अवस्थाको [22 | ही प्राप्त होगा ॥ ३८१-३८२ ॥ नारद मुनिसे ये अपने अपमान सूचक वचन सुनकर राजा मधु Irel का हृदय क्रोधसे पजल गया एवं जिसप्रकार आकाशकी गर्जना सुन केहरी गर्ज निकलता है उसी
प्रकार राजा मधु भी वेहद गर्जने लगा । इस प्रकार जिसको कलह ही प्यारी है और आपसमें 2 द्वष कराकर जो मनुष्योंका संहार करानेवाले हैं ऐसे नारद मुनि स्वयंभू और मधु दोनोंमें द्वेषका र अकूर वोकर आकाशमार्गसे प्रयाण कर गये । अपने दूतोंका इसप्रकार आश्चर्य कारी मरण
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