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जिहारथं समारय आयां यावः प्रमोदतः ॥२०॥ तदा श्रेष्ठी विचित्येत्यं गर्गोय गुणवर्जितः । जिह्वामारुह्य वेगेन क जंगम्यते स्फुट। १२१॥ कियन्मार्ग पुनः प्राप्त निर्मले सजलाशये। पादत्राणं पदे कृत्या निर्गतः कौतुकान्वितः ॥ १२२ ॥ व्यतकंयसदा श्रेष्ठो मूखॉयं मन सिस्बके । अप्रमार्गे पुनर्गत्वा जगाद मधुरं प्रियं ॥१२३॥ भो मातुला तिष्ठायो वृक्ष परिविराजिते । श्रुत्वा वाक्यं स्थितः $ठो सोऽपि
पर्णमयं महत् । आतपत्रं विधायाशु मस्तके धृतवान् खलु ॥१२४ ॥ षट्पदी) इभ्योऽसौ तर्कयामास तापरुट्सत्तरोरधः । मूर्ख गर्ग वि काहायान्यः कः छत्र मस्तके धरेत् ॥ १२५ ॥ अग्रे प्राम विलोक्यासावप्राक्षादिंद्रदत्तक । भो भो मामोइसो प्रामो बसते वा बद स्वकर
__मामा! आओ जिह्वारूपी रथपर सवार होकर अपन दोनों आनंदपूर्वक शीघ्र चलें । कुमारकी। यह चतुरताको भी बात न समझकर सेट इन्द्रदत्त कहने लगा--यह बालक तो मूर्ख जान पड़ता है, भला जिह्वारूपी स्थपर बैठकर भी कभी जल्दी जाया जा सकता है ? ॥ ११६–१२१ ॥मार्गमें र कुछ दूर आगे जाकर एक नदी पड़ी । कौतृहली कुमार श्रेणिक जूता पहिन कर ही उस नदीके जलमें | चलने लगा। उसकी यह चष्टा देख फिर इन्द्रदत्त अपने मनमें विचार करने लगा कि यह बालक
अवश्य मूर्ख है। आगे मार्गमें अनेक प्रकारके पक्षियोंसे व्याप्त एक विशाल वृक्ष पड़ा उसे देखकर sil कुमारने मीठे स्वर में कहा--मामा ! आओ थोड़ी देर इस वृक्षके नीचे आराम करलें । कुमारके कहने kd से सेठ इन्द्रदत्त ठहर गया। कुमारने वृक्षके पत्तोंकी उसी समय एक छत्रो बनाई और मस्तकपर |
छत्री तानकर वह बैठा | कुमारकी यह चेष्टा देख इंद्रदत्त विचार करने लगा। धूपके संतापको दूर करनेके लिये मस्तकपर छत्री तानी जाती है। यह उत्तम वृक्ष धूपका संताप दूर करनेवाला है छत्री
तानकर बैठनेकी कोई आवश्यकता नहीं परंतु यह बालक इस वृक्षके नीचे भी मस्तकपर छत्री तान-- - कर बैठा है इसलिये यह बड़ा हठी और मूर्ख हैं ॥ १२२---१२५ ॥ मार्गमें आगे चलकर एक गांव
पड़ा उसे देख कुमारने इंद्रदत्तसे पूछा-मामा ! कृपाकर यह बताओ तो यह गांव उजड़ा हुआ है या जवसा हुआ है ? कुमारकी यह बात सुन और उसका असली तात्पर्य न समझ इंद्रदत्तने अपने 5
मनमें विचार किया कि यह बालक पक्का मुर्ख है क्योंकि यह गांव अनेक प्रकारके उत्तमोत्तम पदा
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