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TTYIYhya Kahakar
मामक ? यावो वां द्विजाने भोजनायवे।गतो निर्घाटिती विजाः पश्चिमबुद्धयः ।। ११५॥ जठराग्निमठं प्राप्य स्थितस्तेन समं मुश। कुमार श्रेणिकं मत्वा भोजनादिपुरस्कृतः ।। ११६ ॥ ततोऽवादीसरा बौद्धःणिक! ऋण मद्वचः। यौद्ध धर्म गृहाण त्वं येन राज्य भविष्यति ॥ १७॥ विपदः संपदायते कष्ट' याति विरागवत् । बौद्धधर्मात्परो धर्मो नोऽमव भविष्यति ॥ ११८ ॥ प्रतिपद्य तदा गंतुमुत्तुकोऽ कुशाग्रधीः । तेनासाविद्रदत्तेन मार्गे कौतुक.कृद्धठात् ॥ ११ ॥ उवाच श्रेणिको धीमान भो भो मातुल ! शन-स मोजनके लिये कहें । बस दोनों के दोनों विपके पास गये परंतु उसने इनकी एक भी न सुनी। विनोंने उन्हें सूखा ही टाल दिया । ठीक ही है विप्रगण विचित्र बुद्धि के धारक होते हैं अपने
धमंडके सामने किसीको भी नहीं सुनते ॥ ११३.–११५ ॥ उसो गांवके अंदर एक बौद्धोंका भी PARठ था। कुमार श्रेणिक विनों के उत्तरसे हताश हो मामा इद्रदत्त के साथ उसी मठमें जाकर र
जवेश कर गये और आनन्दवार्ता करने लगे। वहांपर एक बौद्ध सन्यासी जो कि कुमार श्रेणिकको पहिचानता था, रहता था। कुमार श्रेणिकको पहिचानकर उसने कुमारका भोजन आदिसे पूरा आदर सत्कार किया एवं अंतमें कुमारके संतुष्ट हो जानेपर वह इप्रकार कहने लगा- .
प्रिय कुमार ! मालूम होता है तुम राज्य प्राप्तिकी कोई आशा न रख यहां वहां मारे फिर रहे हो और अत्यंत दुःखका अनुभव कर रहे हो । तुम बौद्धधर्मको धारण कर लो। इस बौद्ध धर्मकी तपासे नियमसे तुम्हे राज्य मिलेगा क्योंकि इसी बौद्ध धर्मकी कृपासे जो घोर विपत्तियां है ये संपत्तियां हो जाती है एवं जिसप्रकार विरागी पुरुष धन धान्य आदिको छोड़ देता है उसीप्रकार | बौद्ध धर्मके सेवन करनेवालेको कष्ट छोड़कर भाग जाता है उसे किसी प्रकारका कष्ट भोगना नहीं व पड़ता विशेष क्या यह वौद्धधर्म इतना उत्तम धर्म है कि न तो इससं उत्कृष्ट धर्म संसारके अन्दर हुआ न होगा ॥ ११७-११८ ॥ कुशाग्रबुद्धि कुमार श्रेणिकने बौद्धसाधुके कहे अनुसार बौद्ध धर्म -
खीकार कर लिया। सेठ इंद्रदत्त के साथ ये नंदिग्रामसे आगेको चल दिये एवं कौतूहली और Hal बुद्धिसान वह कुमार श्रेणिक मार्गमें इसप्रकार वार्तालाप करता करता चलने लगा
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