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करिता ॥ ५६० ॥ वयम् दिङ्मुखाश्व चामराजितः । निर्ययौ पटध्वानमंत्रितु
संभूः । किमि रंजयन् लोकसंघकान् । जयान्तात् सपुलिस: ॥ ५६१ ॥ रंगवामा | सम्मति जिमं ॥ ५६२ ॥ मनस्तंभ विलोकशशु दूस्तो नरनायकः । गजानुत्तीर्थं भौतिeम साप्टांग छत्रवर्जितः ॥ ५६३ ॥ निःसहोति पठन् राजा विवेश समवसृतिं । सुगभिसोः समुल्लं पश्यन् शोभां गतोऽतरे ॥ ५६४ ॥ विष्टरस्य महाबोरं तेजसा व्याप्तदिक् । त्रिः प्रक्षिणिकां कृत्वा नमान काश्यपोप्रति ॥ ५६५॥ अयित्वाथ संस्तुत्वा निविष्टो नरकोष्ठ के । संदृष्ट्वा हि महीपालो जिनं विजलीसे युक्त काले काले मेघ सरीखे जान पड़ते थे । इसी प्रकारको जातिके घोड़े सजाये गये। जो कि अपनी कलाओंसे आकाश जल और स्थलपर चलनेवाले थे । दृढ थे और ओरेवी चाल चलनेवाले थे। महाराज श्रेणिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि थे इसलिये उन्होंने समवसरण की जमीनपर्यंत | रंग विरंगे कपड़ोंको बिछाकर चलनेका मार्ग सजाया था । ५५७-५६१ ॥ भगवान महावीर जिनेंद्र की वंदनाके लिये महाराज श्रेणिक चल दिये, जिससमय ये चले अपने वाजोंके शब्दोंसे समस्त दिशायें उन्होंने शब्दायमान कर दीं। जीओो नादो इत्यादि शब्दोंसे समस्त लोक उन्होंने आनंदित कर दिया। समस्त पुत्र और रानी वेलिनीको अपने साथमें ले लिया । चारो प्रकार की। सेना उनके साथ चलने लगी। उनके शिखर छत्र फिरता और चमर दुरते जाते थे एवं दुदुभि बाजे बजते जाते थे । बनमें पहुंचकर जिससमय राजा श्रेणिकको मान स्तंभ दीख पड़ा वे तत्काल हाथीसे उतर पड़े । छत्र चमर आदि विभूति छोड़ दी एवं दूरसे ही उसे साष्टांग नमस्कार किया || | ५६२--५६४ ॥ समवस्त्ररण के पास लाकर “निःसहि निःसहि निःसहि" इसप्रकार तीनबार निःसहि शब्दका उच्चारण करने लगे । समवसरण के भीतर प्रवेश किया एवं ऊंची ऊंची भीतोंको उलांघकर वे समवसरणकी शोभा निरखने लगे ।। ५६५ ॥ समवसरण के मध्यभागमें भगवान महावीर जिनेंद्र विराजमान थे जिनके कि प्रखंड लेजसे समस्त दिशायें जगमगा रहीं थीं । राजा श्रेणिकने उनकी
जित् ।। ५५६ ॥ मासमग्रसतेः
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