SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4 शमप्रदं शिवं ।। ५६६॥ स्वभवाबलिको शुत्वा तूष्णीत्वं संस्थितो यहा । अभयाख्यो जिन नत्या पप्रच्छ स्वभयावलि'। ५६७ ॥ शृणु वत्स! मवान स्वीयानकथयामि समासतः । द्विज एको याति वेदाभ्यासार्थ श्रावण च ॥५.६८ कियन्मार्गे द्विजो गच्छन् दृष्ट्वा चाभिमुख यर्ट। परीत्य भावयुत्तः सन्नमाम विनयान्वितः । १६ ॥ श्रावको हि तदा स्मित्वा नीत्या पत्राण तत्तरोः । स्पादं च परिमृज्य क्षिप्तवान् काश्यपीतले ॥ ५.०॥ दृष्ट्वा द्विजो महाकोधावचीत् श्रावक प्रति । विकषि न जानासि चित्र हि कष्टद ॥ ५७१ ॥ श्राधफोऽपि द्विजं प्राह यदीय शुद्धदेयता । तर्हि मम बिनाशं च करप्यत्येव नान्यथा ॥ ५७२ ।। द्विजो विशं पुनः प्राहक तीन प्रदक्षिणा दीं। भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। पूजाकी। पूजाके अंतमें स्तुति की। लनु कोठेमें जाकर विराज गये। अनेक प्रकारसे कल्याणोंको प्रदान करनेवाले और साक्षात् नोच स्वरूप भगवान जिनेंद्रसे अपने पूर्वभव पर्छ । भगवान ने अपनी दिव्य नसे उनका वर्णन किया। सुनकर राजा श्रेणिक शांत होकर अपने स्थानपर स्थिर होकर बैट गये । राजा श्रेणिको लाल कुमार अभय भी गये थे उन्होंने भगवान जिनेद्रको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और विनयपूर्वक करने पूर्वभवोंको पूछा । भगवान जिनेंद्र भी यह कहकर कि-वत्स ! मैं संक्षेपसे तुम्हारे पूर्वमय कहता FE हं, । उसके पूर्वभव वर्णन करने लगे घेणातड़ागपुरका निवाली एक ब्रह्मण वेदाभ्यास करने के लिये चला। देवयोगसे उसके साथ साथ एक श्रावक भी चल दिया। चलते चलते कुछ दूर जब वह विप्र पहुँचा तो भाग उसे एक [] चड़का दक्ष दीख पड़ा । ब्राह्मणने भक्तिभावसे उसकी प्रदक्षिणा दी और मस्तक झुकाकर नमस्कार किया। ब्राह्मण के साथ में जो श्रावक गया था वह जैनधर्मका परम भक्त था। ब्राह्मण ने जो कार्य किया था उसे देख वह मुसकराने लगा। वृक्षके थोड़े पत्ते तोड़ लिये। उनसे पैर पोंछ और उन्हें जमीन पर डाल दिया ॥ ५६६-५७१ ॥ श्रावककी यह चेष्टा देख ब्राह्मण अपना क्रोध न संभाल सकार र शीघ्र ही उसने श्रावकसे कहा--अरे भाई! तुम क्या करते हो ? क्या तुम नहीं जानते कि देवकी ! अवज्ञा महा कष्ट प्रदान करने वाली है। उत्तर में श्रावकने ब्राह्मणसे कहा--भाई ! यदि तुम्हारा REFEYSERIYAY
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy