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________________ मल ५. わわわ अहो नराधीश ? नन्द स्वं करुणालय ! महावीरागमेनैव चिरं जीव चिरं जयं ॥ ५५३ ॥ श्रुत्वोत्थितो महीपालो गत्वा सप्तपदानि व तां दिशं ननमीतिस्म परोक्षविनयान्वितः ॥ ५५४ ॥ हर्षितोऽदासदा राजा वस्त्रालंकारसद्धनं । मालाकाराय भावेन राजराज इवापरः ॥ ५५५ ॥ वेदितु ं गंतुकामः सन्तानंदाख्यं सुदुदुभिं । दापयामास सङ्घस्या पौरसन्नाहसंवृतः ॥ ५५६ ॥ सिंधुरांच मदोन्मत्तानंज नाभान् कियत्सतान् । विचित्रांयरितान्नानारंगराजिविचित्रितान् ॥ ५५७ ॥ दानतोय महावृष्टिपं काकुलितभूतलान् । स शृंगारितचान् राजा विद्युद्यमान् भृशं ॥ ५५८ ॥ षट्त्रिंशज्जातकानश्वान् खांभोभूमिगतीन् दृढान् । स्वपुढं गामिनो राजा भूवयामास सोऽरि | सुन्दर फूल और उत्तम फल लेकर वह महाराज श्रेणिकको राजसभामें गया । वनके अन्दर जो बेॠतु में शोभा हुई थी सारी कह सुनाई एवं गद्गद बाणीसे इसप्रकार कहने लगा- महाराज ! आपके उद्यानमें भगवान महावीर आकर विराजे है । उनके आगमन से आप नादो चिरकाल तक जीओ और चिरकाल तक जयवंते रहो ? वनपालकी यह आनंद प्रदान करनेवाली बात सुनकर महाराज श्रेणिक एकदम सिंहासन से उठे । जिस दिशा में भगवान महावीर स्वामी बिराजमान थे उस दिशामें सात पेड़ आगे बढे और बड़े विनयसे उस दिशाको परोक्ष नमस्कार किया। महाराज श्रेणिकके आनंदका उस समय ठिकाना न था इसलिये जिसप्रकार कुबेर निःसं कोचरूपसे दूसरेको धन प्रदान करता है उसप्रकार महाराज श्रेणिकने भी बड़े उत्साहसे मालीको उत्तम वस्त्र अलंकार और विपुल धन प्रदान किया ॥५५३ - - ५५६ ॥ भगवान जिनेन्द्रकी बंदनाकी अभिलाषा चित्तमें उछलने लगी इसलिये उन्होंने शीघ्र ही बंदनाकी घोषणा करनेके लिये नगर में आनंद भेरी दिवा दी एवं पुरवासी लोगों के साथ चलनेके लिये उद्यत हो गये। उससमय महाराज श्रेणिकने कईसौ हाथी सजवाये जो कि मदोन्मत्त थे अन्जन पर्वतके समान काले थे । अनेक प्रकारकी भूलोंसे शोभायमान थे । नाना प्रकारके रंगोंसे चित्र विचित्र थे एवं करते हुये मदरूपी जलकी महावृष्टिसे उन्होंने समस्त पृथिवीतल कीचमयकर दिया था इसीलिये वे हाथी आकाशमें FRE तपाय तय ययय
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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