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Talatkar
श्रुत्वा रराण राजेंद्रः शृणु रुवक्षि! महचः 1 बाठराग्निमाधौं यस्माद्राज्यं सुखं धनं ॥ २३ ॥ प्रोवाच चेलिनो दक्षा जिनः स्याद्वादनायकः । रागद्वेषविनिर्मुक्तो ध्यानलीनो निरंजनः ॥२६४॥ केवलमानसर्वज्ञः तत् तारयितु' क्षमः | तत्समो न भवेदन्यो देवः शौद्धोधनादिकः ॥ २५ ॥ निग्रंथगुरुभिस्तुल्या नापरे गुरखो मताः । संस्थाप्य सुमतं यौद्धमतं निर्भत्स्य सा स्थिता ॥ २८६ ।। प्रोपाच
उसकी स्त्री रोहिणी विधवा ही मानी जाती है अर्थात् परमतमें राहुको केवल शिरस्वरूप न ही माना है इसलिये रोहिणीके लिये उसका रहना न रहना एकसा है उसोप्रकार विना धर्मके
मेरा महाराणीपद भी व्यर्थ है। तथा जो शुद्र पतित हैं उनके लिये वेद पढ़ने का अधिकार नहीं र यदि वे पढ़ें तो उनका पढ़ना निकृष्ट माना जाता है उसीप्रकार में पवित्र बेदस्वरूप हूँ यह घर * पतित शूद्र स्वरूप है इसलिये मेरा यहां रहना अयुक्त है अतः राजगृहमें आना मेरा बड़ा दुःखHदायी हुआ। महाराणी चे लिनोके ऐसे वचन सुन उत्तरमें महाराजने कहा
हिरणीके समान नेत्रवाली महाराणी। जिसतरह तुम जैनधर्मको ही धर्म समझ रहो हो उस Hi प्रकार मेरा भी यह दृढ़ सिद्धांत है कि संसारमें वौद्धधर्म ही महाधर्म है। उससे बढ़कर कोई धर्म न
नहीं क्योंकि राज्य सुख धन जितने भी उत्तम पदार्थ हैं इस बौद्धधर्मकी ही कृपासे प्राप्त होते हैं । महाराणी चोलिनीको जैनधर्मका परिपूर्ण श्रद्धान था महाराजको बात उस सहन न हो सकी इस A लिये उसने शीघ ही उत्तर दिया-राजन् ! भगवान जिनेंद्र स्याद्वाद-अनेकांत बाद के स्वामी है। राग द्वेषसे रहित हैं। ध्यानमें लोन हैं । केवल ज्ञानसे युक्त होनेसे सर्वज्ञ हैं। स्वयं तरनेवाले और
दसरोंको भी तारनेवाले हैं। भगवान जिनेंद्र के समान बौद्धधर्मके शौद्धोधन आदि देव नहीं हो - सकते ॥ २६०---२६५ ॥ तथा जैनधर्मके अन्दर परिग्रहरहित निथ गुरु माने जाते हैं। निग्रंथ
गुरुओंके समान संसारमें अन्य गुरु नहीं हो सकते.बस इसप्रकार अपने मत-जैनमतका स्थापन कर और बौद्धमतका खंडनकर महराणी चलनी शांत रह गई ॥ २६६ ॥ महाराज श्रेणिकने भी
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