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राज्य प्रवयाज मत्रपासमोपके । २०५ श्योः स गुरु सवधिविलोचनः । आर्यिकादांतमत्यन्ते तब मातापि दीक्षिता ॥ २०५५ त्वत्पतिः सिंहसेनासयो मृत्वा दष्टोऽहिना नरः । करींद्रोऽशनिघोषाख्यः प्रौढो घन इवापरः ॥ २०६ ॥ भूत्वारण्ये भ्रमन, मत्तो मामालोक्य जिधासाधावतिरुम मयाकाशे स्थित्याऽ सौ प्रतियोषितः ॥२०७मयोतपूर्वसंबंध श्रुत्वा सम्यक प्रबुद्धवान् । संयमा संयम भव्यः कुम्भी सद्यः समग्रहीत् ॥२०॥ स्थिरचित्तः सनिगो झात्वा देहायतारतां । कृत्वा मासोपवासादीन शुष्कराणि भन्न यन् ॥ २०॥ ॥ कुर्वन्नेव महासत्वश्चिरं धोरतर तपः। कृशोऽभूच्छक्तिहीनत्वात्पयोधिरिव निर्जलः ॥ २११ ॥ अथो यः पूर्वहिट सों कर मुनिराज भद्रवाहुके समीप दिगम्बरो दीक्षासे दीक्षित होगया था वही अवधि ज्ञानसे शोभायमान हमारा गुरु हुआ है। तुम्हारी माताने भी आर्यिका दांत मतिके समीपमें आर्यिकाके व्रत धारण कर लिये हैं। तुम्हारा पति सिंहसेन जो कि सपने डस लिया था अशनिधोष नामका विशाल हाथी हुआ जो कि साक्षात् काला मेघ सरीखा जान पड़ता था । वह इसी वनमें एक दिन मदोन्मत्त हो घूम रहा था कि उसने मुझे देखा एवं एकदम वह मुझर मारने के लिये रूर
पड़ा। मैं चारण ऋद्धिका धारक था इसलिये मैं आकाशमें अवर स्थित होगया एवं मैंने उसे रा, सुन्दर वाक्योंमे पूर्व जन्मका वृतान्त सुनाकर प्रतिबोध दिया। जिस समय उसने मुझसे अपने पूर्व
भवका वृतान्त सुना तो बह एक दम प्रतिबुद्ध होगया और मेरे उपदेशानुसार उसने शोघही संयEN मासंयम-देश चरित्र धारण कर लिया ॥ २०४-२०८ ॥ वह अशनिघोष हाथी उस दिनसे स्थिर |
व चित्त होगया। शरीर आदिको असार जानकर वह एक दम विरक्त होगया। एकमास तो कभी एक - पक्ष आदिका उपवास करने लगा। जीब हिंसाके भयले सूखे पत्ते खाने लगा इस प्रकार अत्यन्त 21
वलवान भी वह चिर काल तक घोर तप तपनेके कारण एकदम कृश होगया इसीलिये जिस प्रकार जल रहित समुद्र शोभा नहीं पाता उसी प्रकार शक्तिहीन वह हाथी भो शोभायमान नहीं जान पड़ता था ॥ २०६-२१०॥
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