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मल
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|| ३६३ ॥ श्रतो भो महादेस्य ! मां मा भक्षय दुःखिनं । राशो दूतोऽस्म्यहं ते ते विज्ञप्त्यै चागतो ध्रुवं ॥ ३६४ ॥ क्रव्यादोऽस तदास्यांने तर्कशमान सम्यवत् । हन्यते चेच्चरो नून' गुरुइत्या भवेदिति ॥ २६५ ॥ निश्चित्येत्थं जगौ दूत' याहि याहि ममाग्रतः वंदन्यश तेन तत्पुर' निर्जन कृतं ॥ २६६ ॥ अतो भूतो न हंतव्यस्त्वाद्वक्षेण यशस्वता । मानिना विक्रमादयेन गुणगांभीर्य शालि ना || ३६७ || निसर्गाध्वप्रयाता किं हरिणा ध्वस्तदन्तिना । क्रोष्टा प्रहियते क्वापि श्रुतं दृष्टं त्वया श्रुते ॥ ३६८ ॥ भ्रातृवाक्य दैत्यराज ! मैं महा दुःखी हू मुझ े मत खाइये मेरी बात सुन लीजिये 1 चम्पापुरीके राजाका दूत हूं। राजाकी बात: निवेदन करने के लिये आपके पास आया हूं । दूतकी यह बात सुन जिस प्रकार सभ्य किसी बातका सरलतासे विचार करता है उसी प्रकार वह राक्षस अपने मनमें यह विचार करने लगा । दूतको मारना न्याय विरुद्ध है यदि मैं इस दूतको मार डालूंगा तो मुझ गुरु हत्याका दोष लगेगा || ३६३ - ३६५ ॥ वस ऐसा पूर्ण विचार कर राक्षसने दूतसे कहा- भाई दूत ! तुम मेरे सामनेले जा सकते हो मैं तुम्हें नहीं मार सकता। इस प्रकार वलभद्र धर्मने दृष्टान्त देकर स्वयंभूको समझाया और यह कहा भाई ! पूर्व वैरके संवन्धसे राक्षसने उस पुरको जन शून्य बना दिया था इसलिये तुम्हारे प्रति मेरा यही कहना है कि तुम संसारमें एक यशस्त्री मानी पराक्रमी गुणी और गंभीर माने जाते हो तुम सरीखे महा पुरुषको राजा मधुके दूतोंको न मारना चाहिये। भाई ! विचारा दीन श्रृंगाल जो कि अपने मार्ग पर चल रहा है उसे बड़े २ हाथियों के | मदको चूर करनेवाले केहरीने मारा हो यह वात आजतक कही भी देखी सुनी नहीं गई है । तुम बड़े राजाओं के मानको मर्दन करनेवाले हो तुम्हें इन दीन दूतोंको कभी नहीं मारना चाहिये। कोधी स्वयंभू कब किसीकी बात सुननेवाला था । अपने बड़े भाई धर्मको बातका स्वयंभूने कुछ भी आदर नहीं किया। देखते देखते दोनों दूतोंको मार डाला और दोनोंसे जो कुछ भी उनके पास मधुके
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