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________________ तिरस्कृत्य हतौ दुती स्वयंभुवा । उभयोः प्राभूत'नोत्वा किं न कुर्वति दुर्धराः ॥ ३६६ । थुतहा ये नरा लोके सत्त्वान्याः सजना अपि । विमृश्यकारिणोधीरा यन्दनीया ततस्तके ।। ३७० ॥ ततो नत्वा निजामार तस्थतूरामकेशी । भुजानी प्रोनितः सौख्य निमग्नौ रतिवारिधौ ।। ३७१।। अर्यकदा महाराजा मधुः परिषदावृतः । नपोदारसमे भान राजते वा नु रात्रिपः ।। ३७२ ।। अत्रांतरें ऽघरे व्योमयान विद्युत्प्रभ मधुः । ददर्श सुन्दराकार नानारत्नच याचित ॥ ३७३ ॥ अहामास स्वधित्तेऽसौ चपलामण्डलो नुवा । कलायो मिहिरो मेरोः प्रस्थं वैडूर्यरजित ।।३७४॥ तन्मध्यस्थ महाकाय लेखर्षि श्यामसुन्दरं । स्थर्णालीजटामालं दृष्ट्वात्तस्थौ सुचः । लिये भेट थी सब छीन ली। ठीक ही है मदोन्मत्त क्या क्या अनर्थ नहीं कर डालते ॥३६६-३६६ ।। संसारमें जो मनुष्य शास्त्रज्ञ हैं । वलशाली हैं। सज्जन हैं । विचार पूर्वक कार्य करनेवाले हैं और धीर वीर हैं वे समस्त लोकके आदरके पात्र होते हैं ॥ ३७० ॥ दूतोंके मारे जानेके वाद नारायण | स्वयंभूका क्रोध शांत हो गया। वे दोनों भाई वलभद्र और नारायण सानन्द अपने राज महलोंमें रहने लगे। प्रीति पूर्वक राज्य सुख भोगने लगे एवं भोग विलास रूपी समुद्रमें एकदम मग्न हो गये ॥ ३७१॥ एक दिनको बात है कि अर्धचक्री राजा मधु अनेक राजाओंसे परिपर्ण राजसभामें बैठे थे | 2 उस समयकी उनको लोकोत्तर शोभा थी। उन्हें देख लोगोंको यह जान पड़ता था कि यह साक्षात् तसूर्य हैं वा चन्द्रमा हें ॥ ३७२ ॥ राजा मधुको उस समय एक विमान दोख पड़ा जो कि विजलीके समान सुन्दर प्रभाका धारक था। मनोज्ञ आकारसे शोभायमान और नाना प्रकारके रत्नोंको किरणोंसे व्याप्त था। इसप्रकार अद्वितोय शोभासे शोभित विमानको देखकर राजा मधुके चित्तमें | सहसा यह विचार उदित हो गया कि यह विजलीका प्रतिबिंब है वा चन्द्रमा वा सूर्य है अथवा वैडूर्य मणिसे शोभायमान यह मेरु पर्वतका पाषाण है। उस विमानके मध्य भागमें नारद ऋषि 长长长长点名要他登后冠誉会长警发警长长学
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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