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तदोत्फणमहानागं मार्य कण्ठे ससर्ज सः ।। ३२८ ॥ चतुर्थदिवसे राज्ञा मध्यरात्र नियेदितं । चेलिन्याश्च तदा श्रुत्वा शोकं कृतवतो स सा 11 ३२६ ।। अघोचन्महिषी राजा मा त्वं दुःख र सुन्दर । मंत्रवादी च पाखंडीगतो नून भविष्यति ॥ ३३० ॥ राशी वाण राजेंद्र
यद्ययं मम सदगुरुः। अमविष्यत्तदा नूनं नागमिष्यन्महायनी ॥ ३३१ ।। इत्युक्त्वा चेलिनी गझी नपेण सइसागता । ध्यानारद * मुनि दृष्ट्वा हाहेति वचनं जगौ ॥ ३२ ॥ पंन्या चोतार्य बेगेन पिपीलोश्च द्विजिनक । पश्चान्ननाम सततया धर्मध्यानस्थित मुनि म
क्रोध और भी अधिक भबक गया वे कहने लगे इस दुष्ट पाखंडीने मन्त्रोंसे कुत्तोंको कील डाला ट बस स्वयं वह मूर्ख राजा मुनिराजको ओर झपटा और भयंकर महानागको मार कर उनके गलेमें | 5 छोड़ दिया ॥ ३२८ ॥ राजा श्रेणिक राजगृह नगर लोट आये। राजकाजको विशेष झझटसे |
तीन दिन तक तो वे रानी च लिनोके महल में न जा सके। चौथे दिन वहां गये और ठोक आधी-| | रातके समय मुनिराजके साथ जो दुर्व्यवहार उन्होंने किया था सारा रानी चलनासे कह सुनाया धर्म भक्त रानी चलनाने जिससमय भयंकर समाचार सना वह एकदम कप गई और अनक प्रकारसे शोक करने लगी। उसकी यह दुःखित अवस्था देख महराज श्रेणिकका भी हृदय पती- | जने लगा वे बार बार महाराणीसे यही कहने लगे--सन्दरी ? तू रंचमात्र भी शोक न कर । वह मंत्रवादी पाखंडी साधु था। गलेसे सर्प फेंककर वह अवश्य कहीं चला गया होगा 1 महाराजके ये वचन सुन चेलिनीने कहा----राजन् ! यदि वह मेरा पवित्र गुरु होगा तो वह महामुनि वहांका वहीं विराजमान--होगा वहांसे कहीं भी न जा सकेगा। ऐसा कहकर वह रानी चे लिनी उसी समय d राजाके साथ मुनिराज यशोधरके स्थानपर पहच । मुनिराज एकदम ध्यानारूद थे--मुझे क्या कष्ट |
दिया जा रहा है इस बातका उन्हें रंचमात्र भी विचार न था। मुनिराजकोध्यानारूढ़ देख धर्म* भक्त चलना हाय हाय कहने लगी । जल्दीसे पासमें जाकर सड़सीसे सर्प खींच कर नीचे डाल |
दिया। चिउंटी भो पोंछकर साफ करदी। पीछे धर्मध्यांनमें स्थित उन मुनिको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया ॥ ३२६–३३३ ॥ वे मुनिराज परम वीतरागी थे। सदा शत्रु और मित्रोंमें समानताकी
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