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बौडाः सिद्धाः स्पिता भोक्षे किमेतक्ष कलेवरैः ॥ ३२१ ॥ श्रुत्वा राजा गतस्तस्या दातु प्रत्युसरं स वै । असक्तत्वान्मनोऽभीष्टं कुरु प्रोक्त्येति सद्वचः॥ ३२२ । अन्यदा मृगार्थ स गतो राजा वातरे। यशोधर मुनि दृष्ट्वा पप्रच्छति भटान्प्रति ।। ३२३ ।। कोऽयं नमो जटाधारी निश्चलो तेजसान्वितः। तेः प्रोकं च नराधोश!। चेलिनीगुरुरित्यलं ॥३२४ ।। तदा राजा महाकोपाच्चिंतयामास
मानसे | रामया चोपद्रवं नीता गुरवो मम संपति ।। ३२५ । पृच्छामि गौरवं वैरं मत्चेति पापसंचयं ।। ३२६ ॥ (षट्पदी) कुकुरान जायमदंष्ट्राभान् शतपंचमितास्तदा । मुमोच योगिन गत्या नेमुस्तत्पादपंकजं ।। ३२७ ॥ कीलिताः शुनका नून मंत्रः पार्वडिनाऽमुना ।
को धारण करना पड़ेगा और दुःख सहना होगा ॥३१८--३२१ ॥ महाराणी चलनाके ये वचन सुन महाराज कुछ भी प्रत्युत्तर न दे सके किंतु असमर्थ हो यही कहने लगे बाबा ! तुझे सूझ सो
कर. तुझसे कुछ कहना व्यर्थ है ।। ३२२ ॥ द एक दिन महाराज श्रेणिक अनेक स भटोंके साथ शिकारके लिये गये। वनके मध्यभागमें
उन्हें यशोधर नामके मुनिराज दीख पड़े। उन्हें देख अपने साथी सुभटोंसे उन्होंने पछा-नम्न जटाधारी निश्चल और अपने शरीरकी प्रभामंडलसे व्याप्त यह कौन है ? उत्तरमें सुभटोंने कहा कुपानाथ ! यही तो महाराणी चलिनीका गुरु है । राजा श्रेणिक तो महाराणी चे लिनीसे अपने गुरुओंका बदला लेने के लिये लालायित थे ही । “यह चोलिनीका गुरु है" यह बात सुनते ही मारे क्रोधके उनकी आत्मा भबक उठो वे मन ही मन विचारने लगे-रानीने अनेक प्रकारके उपद्रव कर इससमय मेरे गुरु व्याकुल कर रक्खें हैं । इससमय रानीसे गुरुओंका बदला लेनेका मुझे अबसर मिला है वस इसप्रकार पापोंका संचय करनेवाला विचारकर यमराजके समान राजाश्रेणिकने दाढ़ोंके धारक शीघ्र ही पांचसो कुत्तं मुनिके ऊपर छोड़ दिये परंतु जैसे ही वे मुनिराजके पास पहुंचे उनके प्रभावसे कुत्तोंका क्रोध शांत हो गया एवं वे सरलस्वभावसे मुनिराजके चरणकमलों को नमस्कार करने लगे ॥ ३२३--३२७ ॥ कुत्तोंकी यह विचित्रदश देखकर राजा श्रेणिकका
सकपक्ष