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चिमल
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विदिशा दिविधि' कृत्वा गतिं योति न संशयः ॥ ५७ ॥ अनन्योऽपि तपस्या यात्या नेप भृशं । निगोशः पञ्चधा प्रोक्तास्तेऽतानंतभेदकाः॥५८॥ अनन्तानंतगुणितान् निगोदान् सिद्धतोऽवदन् । अनन्तानन्तकालेषु राजांत श्रीजिनेश्वराः || ५१|| शुक्तिका कमिशङ्काथा जलका बालकस्तथा । कपी चेति यक्षाः स्युर्जिन देवागमेऽगमे ॥ ६० ॥ मत्कुणाः कुन्यवो यूकाः प्रपेल्युई हिफाः पुनः । गोभ्यादशेऽ परे जोवास्थ्यक्षाः श्रीजिनभाषिताः ॥ ६१ ॥ पटा मशका देशा मक्षिकाः शलभास्तथा | पतंगाद्याः समाख्यातास्तुर्थक्षा: पूर्व सूरिभिः || ६२ ॥ तिर्य'वो नरदेवाश्व नारकाः खमचारिणः । जलस्थलनता जीवाः पञ्चाक्षाः संमता मतः ॥ ६३ ॥ एकद्रयक्षादिजीवानां हैं। जैन सिद्धान्तके अन्दर यह बात बतलाई गई हैं अनंतानंत कालोंमें निगोदराशि सिद्धराशिसे अनंतानंत गुणी अधिक है ।।५७-५८ ॥ सीप मकोड़े शंख आदि जोंक ये जीव तथा बालक जातिके और कपर्दी जातिके जीव दो इन्द्रिय माने हैं। खटमल कुन्थुनामके जीव यूक और गोह आदिक जीव तेइन्द्रिय हैं। मच्छर डांस माखी शलभ और पतङ्ग आदि जीव चौइन्द्रिय है । तियंच मनुष्य देश | नारकी नभचर जलचर और पलवर जीव केंद्रिय हैं । एकेंद्रिय दोइन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति करनेवाला मन ही है क्योंकि मनरूपी वीज ही वंधरूपी वृक्षका उत्पन्न करनेवाला है और बन्धका कारण होने से मोक्ष की प्राप्तिका बाधक है । ५६-६३॥ यदि मनको वश कर लिया जाय तो सिद्धपने की प्राप्ति दूर नहीं है और यदि मन चंचल बना रहे तो संसार दूर नहीं है अर्थात् मनको बस कर से मोकी प्राप्ति होती है और मनके वश न करनेसे संसार में रुलना पड़ता है । ज्ञानावरण आदि मुख्य कर्मोंके जीतनेमें उपवास आदि तप वाह्य कारण हैं वास्तवमें महा बलवान मनका जीतना हो मुख्य कर्मका जीतना है। जो महानुभाव परमात्मपदको अभिलाषा रखनेवाले हैं वे करोड़ों प्रकार के वाह्य तप तपें तो वा क्षण भरके लिये मन वश करें तो दोनोंका फल उनके लिये समान ही है । | अर्थात् वे करोडों प्रकारके बाह्य तपोंके आचरणसे जितने कर्मोंको खिपा सकते हैं उतने ही दण भरके लिये मनको रोकने से भी खिपा सकते हैं ॥ ६४-६६ ॥ जिन महानुभावोंने आत्माको पहि