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पत्रपत्रपत्र
प्रदेषः
संयुपचिकारकं । मन ए कई कर्मबन्धमोक्षाकर' यतः ॥ ६४ ॥ स्वायते मनसि नून सिद्धत्वं नैव दूरतः । चंचले मनसि नृणां संसारत्वं न दूरतः ॥ ६५ ॥ उपोषकादितपसः कर्तव्यं वाह्यमुख्यते । उप्रोप्रमनसो नूनं नेतृत्वं मुख्यकर्मणां ॥ ६६ ॥ समाकोटिसमु तमाम तपसा फलं । क्षणाचन्मनसो रोधात्परमात्मावलंवितः ॥ ६६ ॥ आत्माध्यवगतो येन तेन लब्धं पर महः । तपोऽप्यकारि लहानमदायि खापछि श्रुतं ॥ ६७ ॥ पार्थ तपोभिर्दह्यते तनुः ॥ ६८ ॥ जीवतस्त्वं समाख्यायाजीवतत्त्वं निगद्यते । पुलावा धर्माधर्मावाकाशमेव च ॥ ६६ ॥ कालस्तेषां समाख्यातः पुद्गको मूर्तिमान् गुणैः पूरण गलनार्थी व पुद्गगलो ध्वन्यते जिनैः ॥ ७० ॥ शब्दो बन्धोऽथ संस्थानं समरच्छायातपा मताः । उद्योतः पुत्रस्यैष पर्याया मदागमे चान लिया है उन्होंने हो संसारमें सर्वोच्च तेजकी प्राप्ति करली है ऐसा समझ लेना चाहिये तथा उन्होंने उत्तम तप तपा है। उन्होंने उत्तम दान दिया है और उन्होंने सिद्धांतको पढ़ा है ऐसा भी समझ लेना चाहिये ॥ ६७ ॥ जो पुरुष आत्मा के स्वरूपको न समझकर बाहिर बाहिर घूमनेवाले हैं वे संसारके सुखको ही परम सुख मानकर उसकी प्राप्ति के लिये पूर्ण प्रयत्न करते रहते हैं और वे जो भी तप तपते हैं वे केवल शरीरको ही उससे जलाते हैं। इस प्रकार जीवतत्त्वका वर्णन कर दिया गया जीवतका वर्णन इसप्रकार है
पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल के भेदसे जीव तत्त्व पांच प्रकारका माना है । उनमें पुद्गल द्रव्य मूर्तिमान है क्योंकि वह रूप आदि मूर्तिक गुण स्वरूप हैं। जो पूरा जा सके और जो गल सके वह पुद्गल द्रव्य है ऐसा भगवान जिनेन्द्रने पुद्गल क्रयका स्वरूप वतलाया है । शब्द बंध सूक्ष्मता स्थूलता प्रकार अंधकार छाया आतप -सूर्यका प्रकाश, उद्योत चंद्रमाका प्रकाशये सव पुदगल द्रव्यकी ही पर्यायें हैं ॥ ६७-७० ॥
जिस प्रकार मछलियोंके गमनमें सहायता पहुंचानेवाला जल माना गया है- बिना जलके मछलियां नहीं चल सकती उसीप्रकार जीव और पुनलोंके गमनमे सहकारी कारण धर्म द्रव्य है ।
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