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॥५॥ चतुनिशत्प्रमाष्टमेदास्तिरश्चांच नपा नव । नव विकलेन्द्राणामित्यष्टानवतिमाः ॥५६॥ मार्गपोर्गुणश्चैव चतुर्वश मिरात्मनः । संसारित्वं च सामान्यात्सिद्धत्व निश्वयाग्मतं ॥५२॥ जीवास्तु द्विविधाः प्रोक्ता मुक्ताः संसारिणोऽपरे । जीवास्तु विविधाः प्रोक्ता भल्याभव्यत्वभेदतः ॥५३॥ समनस्कामनस्काश्व ते भूयो विधिधा मताः । प्रणीताः सरिभिर्भूयः स्थाचा जङ्गमा इति ।। ५४ ॥ साकोराश्य निराकाराः सिद्धा मेयात्मवातवतो मेव एकोऽस्ति सिद्धानां नापर कचित् ॥५५॥ कर्माष्टकाचिनि:फ्रांता गुणाष्टकनिधीश्वराः । किंचितूनाः स्वदेहान्य सिद्धा लोकाप्रयासिनः ॥ ५६ ॥ चतुर्धा बन्धनिर्मुक्का ऊध्र्य यांति ततोऽपरे। न्द्रिय चौइन्द्रिय इन तीनोंको पर्याप्त अपर्याप्त और लम्यपर्याप्त से गगानेपर नौ भेद हो जाते हैं इस
प्रकार कुल जीवोंके मिलाकर अठानवे भेद हैं ॥ ५०–५१॥ गति इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणार Ka और मिथ्यात्व सासादन आदि चौदह गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीव चौदह प्रकार माने हैं। व्यवहार
नयसे आत्मा संसारी और निश्चय नयले सिद्ध माना जाता है। सामान्यसे संसारो और मुक्तके भेदसे जोव दो प्रकारके हैं । भव्य और अभब्यके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके है । समनस्क |
और अमनस्कके भेदसे भी संसारी जीव दो प्रकारके हैं । जो मनसहित हों वे समनस्क और जो मन रहित हों वे अमनस्क कहे जाते हैं। इस प्रकार स्थावर और उसके भेदसे संसारीजीवोंका यह
संक्षेप स्वरूप है ॥ ५२-५४॥ साकार और निराकारके भेदसे सिद्ध दो प्रकारके हैं । ये दो भेद । ked ब्यवहार नयसे हैं निश्चय नयसे तो सिद्धोंका एक ही भेद हैं । दूसरा कोई भेद नहीं। ये सिद्ध पर
मेष्ठी आठ कमों से रहित हैं। सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंके स्वामी है। चरम शरीरके आकारसे कुछ ऊन आकारके धारक हैं और लोकके अग्रभागमें विराजमान हैं ॥५५.--.५६॥ प्रकृतिबन्ध स्थि--
तिबन्ध अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध इन चारों प्रकारके बन्धोंसे रहित महा पुरुषों को केवल ऊर्ध्व IS गति ही होती है। निश्चयरूपसे विदिशा आदिमें गमन नहीं होता । अभव्य भी जीव तपश्चरण
कर धेयक पर्यन्त चले जाते हैं। निगोद जीवपांच प्रकारके हैं और भेद उनके अनन्तानन्त माने
घपला
PANEYAyAYANAYANAYA